🌶️🌶️🥵तीखी मिर्ची(Part –9)🌶️🌶️🥵
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बाहर लॉन में रामनारायण ठंडी की मीठी– मीठी धूप का आनंद उठा रहे थे। बड़ा– ही शुष्क मौसम हो चला था। ठंडी बयार जब हड्डियों में लगती तो मानों काट ही डालेगी। यही हवा गर्मियों में कितनी शीतलता प्रदान करती है। सही ही कहा गया है कि परिस्थितियां ही यह तय करती हैं कि इंसान का स्वभाव कैसा होगा?मन ही मन पता नहीं,क्या सोच रहे थे वे।
आज उनके बेटे की शादी थी। पर इस भीड़ भाड़ में भी वे बड़े ही निश्चिंत होकर बैठे थे और विचारों के समंदर में गोते लगा रहे थे। खून– पसीना एक करके रामनारायण ने यह दोमंजिला खड़ा किया था। घर में सुख– सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी। पर कोई नहीं जानता कि इन सुविधाओं की नींव हताशा और दुःख पे खड़ी थी।
कौन कहता है कि तन्हाईयां अच्छी नहीं होती।बड़ा हसीन मौका देती हैं खुद से मिलने का। ध्यान टूटा तो घर से संगीत की मधुर लहरियां कानों में पड़ने लगी। पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था और हो भी क्यों ना हो, आज रामनारायण के इकलौते बेटे रमेश की शादी जो थी।
अब बस बेटे की शादी हो जाए और अपनी सारी जिम्मेदारियां उसे सौंप कर गंगा नहा लूंगा। इतने उतार– चढ़ाव देखते– देखते थक गया हूं मैं, यही सब सोच रहे थे अपनी पत्नी कमला की फोटो के सामने। बीच मझधार में ही कमला ने साथ छोड़ दिया था। वैसे रिश्तों से साथ छूटना इनके लिए कोई नई बात नहीं थी। जिंदगी ने बड़े ही इम्तिहान लिए पर बंदा डिगा नहीं। सही ही कहा गया है कि दर्द कितना खुशनसीब है,जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं।
तभी रमेश बाबूजी– बाबूजी कहते हुए आया। मां की फोटो के सामने उन्हें खड़ा देख थोड़ा ठिठका। रमेश को देखते ही अपने आंसुओं को छिपा गए वे। बारात बस निकलने ही वाली थी, तभी रामनारायण ने एक मिनट का समय मांगा और अपने कमरे की ओर बढ़ गए। अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। रमेश के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। बचपन से ही वह अपने बाबूजी को ऐसा करते हुए देखते आया था।
जब भी कोई खुशी का मौका होता ,रामनारायण एक मिनट कहते हुए अपने कमरे में घुस जाते और थोड़ी देर के बाद ही निकलते। उस समय उनके मुख पर जो संतोष दिखाई देता,उसका कारण आज तक वो समझ नहीं पाया। कभी पूछने की कोशिश भी की तो बाबूजी हंसकर बात को टाल जाते।
बड़े ही शानो– शौकत से शादी संपन्न हो गई। घर में बहू आ गई थी। अब तो रामनारायण की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता। बस रमेश सारी जिम्मेवारी संभाल ले, फिर इस भागती जिंदगी से मुझे भी फुरसत मिल जाएगी। थक गया हूं मैं अब। शादी के बाद तो रामनारायण अपने कमरे में एकांत होकर ज्यादा समय बिताया करते थे।
रमेश की बहू को रामनारायण की कमरे में बंद होने वाली बात हमेशा आश्चर्यचकित करती। यह बात उसने अपने पति को भी बताया पर रमेश ने बातों का रुख मोड़ दिया। जिस बात को वह बचपन से समझ नहीं पाया,अपनी पत्नी को क्या जवाब देता।
कहते हैं कि जो चीज छुपी हो,उसे जानने का उतावलापन हमेशा ही मनुष्य को बेचैन कर देता है। अब वह मौके की ताक में रहा करती,जो उसे मिल भी गया। रामनारायण के दोस्त के बेटे की शादी थी, इसलिए उन्हें दूसरे शहर जाना पड़ा। जैसे ही वे शहर से बाहर गए, बस रमेश की बहू ने खोजबीन शुरू कर दी।
जिज्ञासा की प्रबलता ने दिल और दिमाग दोनों को ही अपने वश में कर लिया था। आखिर बाबूजी ने अपने कमरे में क्या छुपाया है, कहीं कोई गड़ा धन तो नहीं है,बस यही सब सोचते हुए उसने कमरे के अंदर कदम रखा।
चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो कमरा बहुत व्यवस्थित नजर आया। सारी सुख– सुविधाओं से कमरा भरा हुआ था, पर एक चीज़ ताज्जुब वाली थी। एक कोने में पुराने जमाने का एक बक्सा रखा हुआ था। पता नहीं, कौन सी यादों को संभाल रहा था।
बक्सा ताला से जड़ा हुआ था। रमेश की बहू ने चारों तरफ नज़र घुमाई तो दीवाल पर एक चाबी टंगी दिखी। झट से बहू ने उतारा और उससे ताला खोला। आज तो बाबूजी की सारी असलियत पता चल जाएगी।पर जैसे ही उसने बक्से का ढक्कन हटाया, अंदर एक जोड़ी घिसे चप्पल देख अंदर की खुशी काफूर हो गई।
क्या सोचा और क्या पाया,मुंह सिकोड़ते हुए उसने बक्से को झटके से बंद कर दिया और अपने पति को आवाज़ लगाई। जब रमेश ने सामने सारा नजारा देखा तो पहले तो उसने अपनी पत्नी को डांट लगाई। पर ये बात उसे भी चकित कर रही थी कि आखिर बाबूजी ने पुराने चप्पल को इतने संभाल के क्यों रखा हुआ है?। इस बात का जवाब अब केवल वे ही दे सकते थे।
अब दोनों पति– पत्नी पिताजी के आने का इंतजार करने लगे। जब रामनारायण वापस घर आए तो रमेश ने उनके सामने चप्पल रख दिए और पूछा कि आखिर माजरा क्या है। एक प्रश्नवाचक दृष्टि अपने पे डालते देख रामनारायण ने एक ठंडी सांस ली, फिर जो बातें बतानी शुरू की, उसे सुनकर दोनों पति-पत्नी रो पड़े।
बात उस समय की है,जब रामनारायण छोटे थे।इनके पिताजी गांव में मजदूरी करते थे। बहुत ही गरीबी में इनका बचपन गुजरा। कभी– कभी तो ऐसा होता कि बिना कुछ खाए ही शाम हो जाती या सुबह में खाते तो रात यूंही पेट पकड़कर बीत जाता।
इनकी गरीबी को देख गांव के जमींदार ने उनसे बोला कि तुम मेरे यहां बंधुआ मजदूरी करो तो मैं तुम्हारे परिवार को कभी भूखा नहीं रहने दूंगा। पेट की आग ने जमींदार की चालाकी नहीं देखी।बस झट से तैयार हो गए,ताकि परिवार भूखा ना रहे।
अब रामनारायण के पिताजी दिन– रात जमींदार के यहां मजदूरी करते रहते। घर में आना उनका बंद हो गया था। उस साल गांव में भयंकर आकाल पड़ा । जमीदार ने मजदूरों का दाना– पानी बंद कर दिया। काम की तुलना में उनकी मजदूरी ना के बराबर होती।
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उस समय रामनारायण की उम्र यही कोई 10 साल रही होगी। खाने– खाने को मोहताज हो गए ये लोग। इस आपदा की सबसे पहली शिकार रामनारायण की मां हुई। भूख की तपिश में उनके प्राणपखेरू उड़ गए। तब भी उनके पिताजी को जमींदार ने आने नहीं दिया। गांव वालों ने चंदा इकट्ठा करके लाश को जलाया।
अब छोटे रामनारायण कहां जाते? पिताजी तो घर आते ही नहीं थे। अगर कभी थकान से एक मिनट भी बैठ जाते तो जमीदार के आदमी कोड़े बरसाना शुरू कर देते थे। चलता– फिरता कंकाल बना दिया था जमींदार ने उन्हें।
एक दिन रामनारायण भूख से व्याकुल होकर अपने पिताजी के पास रोते हुए गए पर उन्होंने दूर से देखा कि पिताजी सामने जमीन पर अचेतन अवस्था में पड़े हुए थे। उनकी आंखें कोटरों से बाहर आ चुकी थी। वहीं पर जमींदार अपने आदमियों से कह रहा था कि इस लावारिश लाश को दूर जंगल में फेंक आओ और इसके बेटे को पकड़कर लेते आओ।
अब इसका बेटा अपने बाप की जगह पर बंधुआ मजदूरी करेगा। जैसे ही रामनारायण ने ये बातें सुनी,अंदर तक कांप गया। वहां से भागा और जाकर कहीं छुप गया। इसी तरह से दो दिन गुजरे। फिर छिपते– छिपते पास के गांव में पहुंच गया।
सोचो,उस बच्चे पे क्या गुजर रही होगी,जब उसकी आंखों के सामने उसके माता– पिता चल बसे। हाय री किस्मत, अपने माता पिता को कंधा देने का भी उस बच्चे को अवसर नहीं मिला। बस शुरू हो गई उसकी संघर्ष गाथा, लड़ाई अपनी किस्मत से।
पत्थर ढोने का काम शुरू किया। नंगे पैर जब काम पर जाता तो पत्थर नन्हें पैरों में चुभते। कितनी बार तो पैर लहूलुहान हो गए थे। थोड़े पैसे इकट्ठे हुए तो चप्पल ले ली। यही पत्थर उठाते– उठाते जवानी की दहलीज पर पहुंच गया,अपनी कहानी कहते कहते रामनारायण की आवाज भर्रा उठी।
फिर उन्होंने बोलना शुरू किया। मेरे काम से खुश होकर वहां के मालिक ने मुझे वह सारा इलाका देखभाल करने के लिए दे दिया। फिर मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बेटे, आज जो तुम लोग शान से जी रहे हो, उसमें मेरे माता-पिता की सारी हसरतें छुपी हुई हैं।
एक छोटा बच्चा जिसने अपनी आंखों के सामने अपने माता-पिता को मरते देखा, फिर कैसे उसने अपनी जिंदगी संभाली, ये चप्पल मुझे हमेशा याद दिलाते रहते हैं। इसलिए जब भी मुझे कोई खुशी मिलती है मैं अपने कमरे में आता हूं और दरवाजा बंद करके इन्हीं चप्पल को थोड़ी देर पहनकर अपने माता पिता को याद करता हूं ताकि मैं अपने पुराने दिन को कभी ना भूलूं।
मेरे जैसे जाने कितने रामनारायण होंगे,जिसमे से कुछ अपनी बेबसी के कारण मर चुके होंगे तो कुछ अपने पैरों के लिए यह चप्पल बना लिए होंगे।
इस चप्पल की घिसावट मेरी किस्मत की लिखावट है। अंतस में दबी मेरी व्यथा आज बाहर निकली है। मैंने हमेशा से चाहा है कि मेरे बेटे को वह दिन कभी ना देखने को मिले।रामनारायण की कहानी को सुनकर बहू आत्मग्लानि से भर उठी।
अपने ससुर के बारे में उसने क्या– क्या सोच लिया था।इन सुख– सुविधाओं के पीछे का सारा दुख दोनों के सामने आ गया था। पर ये नसीहत जरूर दे गया कि मेहनत वह चाभी है,जो बंद भविष्य के दरवाजे भी खोल देती है। भविष्य में जो भी घटनाएं घटित होती हैं,उसकी नींव हम अतीत या वर्तमान में ही तो तैयार करते हैं।
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