मनाली की वो रातें😳😱😳😱(Part –3)
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निधि से मेरी मुलाकात कोई बहुत पुरानी नहीं थी। पर पहली मुलाकात में ही लगने लगा कि काश वह मेरी जिंदगी में आ जाए। पता नहीं,क्या बात थी उसमें कि मैं उसके आकर्षण में बंधने से अपने आप को रोक नहीं पाया। कुछ दिन पहले की ही तो बात थी। शहर में मेरी नई– नई नौकरी लगी थी। मां– बाबूजी गांव में रहते। हमेशा तो छुट्टी मिलती नहीं , पर मां की तरफ से सख्त हिदायत मिली थी कि दीवाली हमेशा गांव में हमारे साथ बिताओ।
अक्टूबर के अंतिम सप्ताहांत में मैंने गांव जाने की तैयारी करनी शुरू कर दी। अगले महीने ही दीवाली थी। इतने दिन के बाद गांव जा रहा था,मां– पिताजी के लिए उपहार तो बनता ही है।
गांव इतना विकसित तो था नहीं कि ट्रेन वहां तक मुझे ले जाती। बस का ही सहारा था। नौकरी लगने के बाद मैंने मां– पिताजी को शहर बुलाना चाहा ,पर वे लोग गांव को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थे। उल्टे मुझे ही दो बात सुननी पड़ी कि शहर जाते ही मेरे रंग– ढंग बदलने लगे हैं।
खैर,उस दिन जल्दी– जल्दी अपना काम निबटाकर घर से निकला ही था कि दरवाजे पे एक कौआ मरा हुआ मिल गया। लगता है किसी जानवर ने उसे खाने की भी कोशिश की थी। देखकर मेरा मन खराब होने लगा।पर मैंने अपने ध्यान को भटकाया और ताला लगाने लगा।
पर पता नहीं,कैसे एक कील मेरी उंगली में लग गई और खून का फव्वारा निकलने लगा। एक पे एक घटने वाली अपशगुन मेरे मन पे हावी होने लगी थी,पर अंधविश्वास को मैंने अपने ऊपर हावी होने नहीं दिया।
मुझे जल्दी से बस– स्टैंड पहुंचना था। हौले– हौले बस कच्ची सड़कों पर बढ़ रही थी। गांव की बयार कितनी निश्चल और साफ-सुथरी होती है ना,तभी तो मां–पिताजी यहां से निकलना नहीं चाहते। मैं तो इसकी खुशबू में खो– सा गया। बचपन इसी गांव में बीता था पर अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वहां से बाहर निकलना भी जरूरी था।
हवा चेहरे को छूकर निकल रही थी। तभी उंगली के दर्द ने उन घटनाओं का स्मरण करा दिया। इनसे पीछा छुड़ाकर मैं लगभग नींद की आगोश में जाने ही वाला था कि तभी कुछ झड़प की आवाजों ने चौंका दिया। आंखें खुली तो देखा दो– तीन औरतें सीट के लिए आपस में झगड़ रही थी। गांव की औरतें भी कम नहीं होती हैं। एक दूसरे से ऐसे लड़ रही थीं,मानों ये सीट उनकी खरीदी हुई हो।
कोई कहती मैं पहले आई हूं, कोई कहती कि मैंने तो अपना रुमाल यहां रखा था। हिचकोले खाते हुए सभी इस झगड़े का आनंद उठा रहे थे, तभी भीड़ को चीरते हुए एक लड़की ने अपनी स्मार्टनेस से चंद मिनट में ही झगड़े को सुलझा लिया। मतलब उसने अपनी जो दो सीट बुक की थी, वह उन दोनों औरतों को दे दिया और खुद खड़ी हो गई। उसको खड़े देखकर सभी मर्द एक– दूसरे की ओर देखने लगे, मानो इंतजार कर रहे हों कि कोई अपनी जगह पर बैठने दे दे।
मगर सब एक– दूसरे को देखते ही रह गए और बलिदान देना पड़ा मुझे, क्योंकि मुझे अच्छा नहीं लग रहा था कि कोई औरत मेरे सामने खड़ी रहे और मैं बैठा रहूं। बस यही हमारी पहली मुलाकात थी। वह मेरी सीट पर बैठ तो गई, मगर बगल वाली सीट जैसे ही खाली हुई उसने मुझे भी बैठा लिया। अचानक एक अजीब –सी गंध नथुनों में घुस गई।
हमने एक– दूसरे का नाम पूछकर परिचय लिया। बातों ही बातों से पता चला कि वह भी उसी गांव की रहने वाली है, जहां का मैं था। पर परिवार के नाम पर उसके पास केवल गांव की जमीन थी। 15– 16 साल की थी, तभी मां-बाप बचपन में ही गुजर गए। चाचा– चाची ने पाला जरूर, पर उनकी नजर उसकी जमीन पे थी। बातें करते हुए निधि की नज़र मेरे जख्मी उंगली पे चली गई। अपनी नजरें मानों उसने वहां पे टिका ली हो। जब मैंने चुटकी बजाई तो उसे होश आया। फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा।
पर अपने मां-बाप की अंतिम निशानी को अपने से कैसे दूर करती? चाचा– चाची उसे अपनी जमीन बताते। जमीन का पेपर निधि के नाम पर था, पर चाचा– चाची ने उस पेपर को पता नहीं कहां गायब करवा दिया।
कई सालों से यह केस चल रहा था, मगर उसका कोई समाधान अभी तक नहीं हो पाया। इस बार गांव जा रही थी अपने चाचा– चाची से बात करने के लिए। सोचा शांति से सुलझा लूंगी। हैरत वाली बात यह थी कि बीच–बीच में उसका ध्यान मेरी उंगली पे चला जाता।
फिर उसने मेरे से पूछा कि तुम भी अपने बारे में बताओ। मैंने तो अपनी पूरी कहानी बता दी। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह थी कि एक मुलाकात में ही उसने अपने बारे में सब बता दिया। एक अजनबी पे इतना भरोसा? मैं इतनी जल्दी घुलता– मिलता नहीं हूं,पर उसके लगातार दबाव ने मजबूर कर दिया मुझे।
मेरा नाम जयंत है, इसी गांव में पला– बढ़ा हूं, पर घर की जरूरतों ने बाहर शहर में ढकेल दिया। हर दीवाली में गांव आना मेरे लिए जरूरी है। मां-बाप यहीं गांव में रहते हैं। अपनी जमीन है, जहां पिताजी खेती करते हैं। बस अपनी तो यही राम कहानी है, मैंने इस अंदाज में कहा कि निधि खिलखिला कर हंस पड़ी।
मैंने गांव में उसके घर का पता मांगा,तो बातों को घुमा दिया उसने। तभी कंडक्टर की आवाज कानों में गई, रामपुर आ गया, सभी अपना– अपना सामान बांध लें। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मेरे गांव का नाम रामपुर है। फिर हम दोनों नीचे उतरे। यहां से हमारे रास्ते अलग होने थे।
एक– दूसरे से फिर मुलाकात की आशा लेकर हमने अलविदा कहा। अचानक से पीछे से निधि की आवाज़ आई। अरे! मैंने तो फोन नंबर लिया ही नहीं,बात कैसे करूंगी तुमसे। देने का तो मन नहीं था,पर कुछ सोचकर मैंने नंबर का आदान– प्रदान कर लिया।
गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू सीधे मेरे नाक में घुस रही थी। बचपन से ही मन में सोचा करता था कि मैं यह बनूंगा, वह बनूंगा पर जब गांव की दहलीज छूटी तो समझ में आया कि नहीं! अब तो फिर से बच्चा बनना है।
मेरा घर बस अब आने ही वाला था। घर में घुसा और मां,मां चिल्लाने लगा, तभी आंगन में मिट्टी के चूल्हे के पास रोटियां सेंकती मां नजर आई। जैसे ही उसने मुझे देखा, चेहरा मुस्कुरा उठा उनका । फिर थोड़ी देर के बाद पिताजी भी घर आ गए। मेरी बातों का सिलसिला तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। मां के हाथों से बने खाने जब हलक में गए तो मानो तृप्ति ही मिल गई।
फिर नहा– धोकर बाहर दालान में ही खाट पर सोने चला गया। शहर में ये सुख कहां मिलता है? पर पता नहीं दिल में हलचल क्यों होने लगी। शहर से निकला हुआ ठीक ही था, पर गांव पहुंच गया, मां– बाप से मिला,पर शायद कुछ छूट रहा था। अचानक से मुझे क्या हो गया, मैं इतना बेचैन क्यों हो रहा हूं।
तभी एकाएक निधि का चेहरा सामने आ गया। मन फिर से व्याकुल हो उठा। सोचा निधि का हाल– चाल ले लूं। यहां गांव में तो अकेली ही है। मां-बाप भी नहीं हैं उसके। निधि की याद ने दिल में हलचल मचा दी। बस एक ही मुलाकात में कैसा रिश्ता जुड़ गया, मानो बरसों से हम मिल रहे हों।
फिर मैंने फोन घुमाया,उधर से उसकी खनकती आवाज ने दिल में और हलचल मचा दी। मैंने उससे मिलने की इच्छा जाहिर की और उसका हाल– चाल लिया। पर निधि ने यह कहते हुए कि जयंत! यह गांव है। यहां लड़का– लड़की इस तरह से खुले में नहीं मिल सकते। बातें बनाने वाले हम दोनों को छोड़ेंगे नहीं।
फिर बहुत सोचने– विचारने के बाद मैंने उसे घर आने का निमंत्रण दिया। अगले दिन ही निधि मेरे घर आ गई। चाय– नाश्ते के बाद हमने बातचीत करनी शुरू की। निधि! चाचा– चाची से तुम्हारी बात हुई? क्या वे लोग सुलह करने को तैयार हैं? पर निधि का जवाब नकारात्मक रहा।
यार! जयंत, ठंडी सांस लेते हुए उसने कहा कि मैं इससे तंग आ गई हूं। ये लोग जमीन का पेपर दे ही नहीं रहे हैं। उल्टे जब मैंने उन पर पेपर छुपाने का आरोप लगाया तो 8-10 लोगों को मेरे विरोध में खड़ा कर दिया। मैं अकेली जान किस– किस से लड़ूं।
डर लगता है मां-बाप की आखिरी निशानी भी मेरे हाथ से चली जाएगी, तो क्या होगा,कहकर वो सुबकने लगी। निधि के दुख ने मुझे भी अंदर तक हिला दिया था। पर मैं क्या करता? आज भी जब मैंने उससे घर का पता मांगा तो फिर उसने बातों को घुमा दिया। मुझे थोड़ा गुस्सा भी आया। इतना अपनापन दिखा रही है तो फिर अपने घर का पता क्यों नहीं देती?
मुझे उसकी कुछ– कुछ बातें बड़ी अजीब लगती थीं। जैसे वो अपने हाथों में दस्ताने हमेशा पहने रहती। कारण पूछने पर उसने धूप से एलर्जी का कारण बताया। जब वो आसपास रहती तो एक अजीब गंध वातावरण में मौजूद होती।
चार-पांच दिन यूं ही बीत गए। मैं भी गांव में सब से मिलने में व्यस्त रहा। बचपन की याद ताजा की। अगले दिन रात में खाना खाकर बाहर दालान में ही सो गया। तभी अचानक से फोन की घंटी बजी। आंखें मलते देखा, तो रात के 2:00 बज रहे थे। आशंकाओं से मन व्याकुल हो उठा। इतनी रात को निधि का फोन? मैंने फोन रिसीव किया तो उसकी घबराई हुई आवाज़ थी।
आखिर क्या हुआ होगा निधि के साथ? वो इतनी घबराई हुई क्यों थी? जयंत के साथ निधि का कैसा रिश्ता था, यह जानने के लिए पढ़ें, मेरी कहानी का अगला भाग………..
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Damdaar story…waiting for next…..
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