तलाश(वैंपायर लव–स्टोरी)Part –8
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हादसे कभी बता कर नहीं आते हैं यह बात शुक्रवार के दिन बिल्कुल सटीक बैठती है। 8 मई को महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में घटी घटना हमारी पूरी शासन प्रणाली को धड़ल्ले से अर्श से फर्श पर खड़ी कर देती है ।रोंगटे खड़े कर देने वाली यह वीभत्स घटना हमारे सामने यह सवाल उठाने में पीछे नहीं हटती कि आखिर कब तक जिंदगी यूंही मौत से खेलती रहेगी।
हुआ यूं कि मध्य महाराष्ट्र के जालना से भुसावल की ओर पैदल जा रहे मजदूर अपने घर मध्यप्रदेश लौट रहे थे। रेल की पटरियों के किनारे – किनारे चलकर अपने गृहराज्य की ओर बढ़ रहे थे ।इसी बीच थकान से वशीभूत होकर पटरियों पर ही सो गए। जालना से आ रही मालगाड़ी इन मजदूरों पर चढ़ गई ।मौका – ए – वारदात पर ही कुछ मजदूरों की मौत हो गई जबकि कुछ घायल हो गए ।इन समूहों में से तीन मजदूर जीवित बच गए,क्योंकि वे रेल कि पटरियों से कुछ दूरी पर सो रहे थे।
कोरोना वायरस को रोकने के लिए देशभर में जो लॉकडाउन किया गया है ,उसका सबसे बुरा असर हमारे मजदूरों पर पड़ा है। फैक्ट्रियों के बंद हो जाने से इन बेचारों के सामने अपनी रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गई है। अपने गांव से दूर अपनी आर्थिक स्थिति को संबल प्रदान करने के लिए वे बड़े शहरों में जीवन यापन के लिए आते हैं ।पर कारखानों के बंद हो जाने से अपनी रोजी-रोटी को लेकर शहरों में पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। कम से कम इनकी इतनी औकात तो है नहीं कि बिना काम के इन नगरों में इनका ठिकाना हो जाए। इस लॉकडॉउन ने इनकी स्थिति को और बेहाल कर दिया है ।अब अपने गांव लौटे तो कैसे लौटे?
इसके पहले भी कई मजदूरों की मौत हो चुकी है । इन बेचारों की बेबसी तो देखिए इस लॉक डाउन की सबसे बड़ी मार इन गरीबों पर ही तो पड़ी है ।काम बंद हो जाने से वे बेरोजगार हो गए। पेट का सवाल था।अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि फैक्ट्रियों के मालिक इनके काम को स्थिरता प्रदान करते या उनको भरोसा दिलाते कि आगे भविष्य में भी ये लोग वहीं काम करेंगे ।आने – जाने का कुछ साधन नहीं मिला तो निकल गए पैदल घर की ओर।
अब यहां पर सवाल उठता है कि इनकी मौत का जिम्मेवार किसे ठहराया जाए? हमारी शासन – प्रणाली, हमारी आर्थिक स्थिति, मजदूरों की बेबसी ,सावधानी हटी दुर्घटना घटी वाली कहावत या लापरवाही का मंजर।अगर इन सब परिस्थितियोंको एक सिलसिलेवार में लाया जाए तो उंगलियां सबकी तरफ घूम जाएंगी।
यहां पर कईयों के मन में यह बात उठेगी कि इन सब हादसों के पीछे कोरोनावायरस का हाथ है।न यह महामारी फैलती और ना लॉकडाउन होता ।फिर ये मजदूर भी अपने काम में लगे होते । मीलों दूर पैदल घर जाने की बात ही सामने नहीं आती ।शायद यह हादसा टल सकता था। पर क्या किया जाए विपदा तो बता कर नहीं आती ना।
चलिए इस घटना की गहराई में जाकर इनका विश्लेषण करते हैं ।यह हादसा केवल इस बात का सूचक नहीं है कि थके – हारे मजदूरों की ही सरासर गलती है कि वे लोग रेल पटरियों पर सो गए थे ,बल्कि यहां पर ये सवाल उठाना भी लाजिमी है कि कोई यह देखने सुनने वाला नहीं था कि आखिर वे पैदल चलने पर क्यों मजबूर हुए ?ऐसा तो हो नहीं सकता कि महाराष्ट्र की शासन प्रणाली ने इन अभागे मजदूरों को पैदल जाते देखा ना हो। साधनहीन मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ देना भी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को दर्शाता है। आखिर क्या कारण है कि स्पेशल ट्रेन चलने के बावजूद ये मजदूर पैदल ही अपने गांव के लिए निकल रहे हैं ।ऐसा नहीं है कि केवल महाराष्ट्र के शहरों में रह रहे मजदूर ही पैदल अपने गांवों के लिए निकल रहे हैं ,बल्कि अलग – अलग राज्यों के कामगारों का भी यही हाल है ।इन सबसे तो यही मतलब निकलता है कि मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने की जो व्यवस्था की गई है ,कहीं उसमे कमी तो नहीं है?
ये सवाल तो हरेक के मन में उठना स्वाभाविक है कि औद्यौगिक शहरों में रह रहे मजदूर आखिर क्यों अपने गांव जाने की मांग को लेकर सड़कों पर निकल पड़े हैं ।केवल ये कह देना कि कुछ राज्य तो प्रवासी मजदूरों से रुकने का आग्रह कर रहे हैं ,अपनी – अपनी जिम्मेवारी की केवल खानापूर्ति भर है । उन राज्यों की यह जिम्मेवारी बनती है कि उनके खाने – रहने की उचित व्यवस्था हो ,तभी तो वे लोग पलायन से विमुख होंगे।
चलिए मान लेते हैं कि ये मजदूर पैदल अपने घर की ओर चल पड़े हैं ।क्या हम ये नहीं कर सकते कि उन राज्यों को जवाबदेह बनाया जाए ,जहां से ये मजदूर चल पड़े हैं ?आखिर संबंधित राज्य सरकारों को अपने जिला – प्रशासन को ऐसे आदेश – निर्देश जारी करने में क्या कठिनाई हो रही है कि ऐसे लोग जहां भी दिखें ,उन्हें रोककर उचित तरीके से उनके शहर भिजवाने की व्यवस्था हो ।अपने अनिश्चित भविष्य को लेकर मजदूर अपने गांव जाने के लिए बेचैन हो रहे हैं । लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस बेचैनी की एक वजह उनकी उपेक्षा भी है।
ये जो हादसा हुआ उसके पीछे का मुख्य तथ्य था कि मजदूर पैदल घर की ओर चल पड़े थे थककर पटरी पर ही सो गए जिससे घटना को अंजाम मिला अब एक और खबर आ रही है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कामगार हरियाणा के उद्योगों में वापस अपनी भागीदारी पाने को उत्सुक हो रहे हैं और उनकी मंशा फिर से शहरों में रुख करने की हो रही है। अब यहां पर हमें लगेगा कि कभी तो वे पैदल ही मीलों निकल पड़ते हैं तो कभी जो घर पहुंच गए हैं वे फिर से हरियाणा वापस आना चाहते हैं।
लेकिन यहां पर यह प्रश्न उठना जरूरी है कि आखिर वे कब तक अपने गांव में बने रहेंगे ?ये ठीक है कि अपना गांव, अपना घर मजदूरों के लिए एक भावनात्मक पड़ाव है, लेकिन अपनी रोजी रोटी का भी सवाल है भईया और इस तल्ख़ सच्चाई को कोई झुठला नहीं सकता कि अगर इन्हें अपने राज्यों में ही रोजगार के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराए गए होते तो यह नौबत ही नहीं आती।
आज के आर्थिक पटल की सच्चाई यही है कि उत्तर प्रदेश और बिहार ही नहीं झारखंड ,राजस्थान ,बंगाल आदि के लोगों को अपनी रोजी- रोटी के लिए महाराष्ट्र, गुजरात, केरल से लेकर पंजाब ,हरियाणा,दिल्ली तक की दौड़ लगानी पड़ती है।
कोरोना कहर ने मजदूरों को पुनः पलायन के लिए विवश किया लेकिन हरियाणा वाली खबर इस बात की ओर इंगित करती है कि जो मजदूर घर लौट चुके हैं या लौट रहे हैं उन्हें वापस अपने कार्यस्थलों में जाना होगा। स्पेशल श्रमिक स्पेशल ट्रेनें भी इसलिए चलाई गई हैं कि फंसे मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाया जाए लेकिन इसमें यह भी कोई दो राय नहीं है कि कारोबारी गतिविधियों के आगे बढ़ाने के प्रयास को देखते हुए ये ट्रेनें वापस इन मजदूरों को अपने कार्य स्थलों पर पहुंचाने का भी कार्य करें। ऐसे आसार दिख रहे हैं कि जल्द ही कारोबार का थमा पहिया घूमने वाला है ,क्योंकि देश की आर्थिक स्थिति के सवाल पैदा हो रहे हैं। लेकिन ये कारोबार भी तो तभी चलेंगे जब उन्हें पर्याप्त संख्या में कामगार उपलब्ध मिलेंगे।
अपनी औद्योगिक गतिविधियों को शुरू करने के लिए जो राज्य तत्पर हो रहे हैं, उनकी यह जिम्मेवारी बनती है कि वे मजदूरों को घर ना जाने के लिए मनाएं ।इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि ये मजदूर गांव- घर जाने के लिए इसलिए बेचैन हुए कि उनके रहने- खाने की उचित व्यवस्था नहीं की गई।काम बंद होने से वे अपनी जीविका कैसे चलाते, यह प्रश्न उनके आड़े आ रहा था जो पलायन करने को विवश कर दिया।
अब तो यही कह सकते हैं कि ये जो भूल हुई उसे ना केवल सुधारा जाना चाहिए बल्कि इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि मजदूरों के प्रति असंवेदनशीलता दिखाकर हम देश का भी नुकसान करते हैं ।ये मजदूर ,कामगार अपनी आर्थिक स्थिति को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। हमारे औद्योगिक पटल के मुख्य आधार हैं ये कामगार।और अगर आधार की ही उपेक्षा की जाएगी तो हमारे आर्थिक परिदृश्य को कमजोर होने से कोई रोक नहीं सकता ।आज की समसामयिक घटना हमारे लिए सबक है और यह सीखने की जरूरत है कि मजदूरों की अपेक्षा होगी तो उनके साथ साथ पूरे देश को भी नुकसान उठाना पड़ेगा। हमारी सरकार को इस पर ध्यान देने की जरूरत है और हमारी यही कोशिश होनी चाहिए कि ऐसी घटना विवशता के साथ पुनः न दोहराई जाए।
जब भी कोई घटना घटती है,उस समय उसकी तह तक जाना अखबारवालों,न्यूज़ चैनल वालों के काम को बढ़ा देता है,आत्मविश्लेषण का दौर जो चलने लगता है।किसकी कहां पे गलती है,उंगलियां उठने लगती है।जो सरकार सत्ता में है ,वो कठघरे में आ जाती है।।फिर सवाल – जवाब होने लगते हैं ।कुछ दिनों तक राजनीतिक पटल पर गहमागहमी चलने लगती है।सरकार पर उंगली उठना भी स्वाभाविक ही है।आखिर हम देश के नागरिक अपनी बात कहने कहां जाएंगे?ये कोई नई बात नहीं है।पहले के वर्षों में भी तो यही काम होते आया है।
अगर गहराई में जाया जाए और आर्थिक परिदृश्य पर नजर दौड़ाई जाए तो इन मजदूरों की बेबसी आज से नहीं बल्कि वर्षों से चली आ रही है। अपने भविष्य की चिंता में ये अपनी जमीन छोड़कर बड़े – बड़े शहरों में मारे फिरते हैं। वहां भी काम तो मिलता है पर शोषण भी खूब होता है। जरा इनकी बदहाली का निरीक्षण करें तो कई सारे तथ्य अपने आप खुलते जाएंगे। हमारी आर्थिक स्थिति को विश्व पटल पर गतिशील बनाने वाले ये मजदूर,कामगार खुद अपनी ही उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। यहां पर यह सवाल हमारी आंखों में खटकता है कि इस लॉकडाउन में सबसे बुरी हालत इन बेचारों की ही क्यों हुई है ?क्यों और तबके के लोग इसमें शामिल नहीं हैं?इनकी बेबसी ,उपेक्षित होने की कहानी आज की नहीं है। जाने कितने दिनों से ये मजदूर जिसमें स्त्रियां और बच्चे भी शामिल है ,पैदल ही इस गर्मी में अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं। इन विचारों की आंखों में अपने भविष्य की अनिश्चितता समाई हुई है ।चिंता इस बात की भी है कि गांव जाकर करेंगे तो करेंगे क्या ? क्यों किसी का ध्यान इन पर नहीं गया।ये उपेक्षा नहीं तो और क्या है। क्यों सरकार का ध्यान इनकी परिस्थितियों पर नहीं गया? अब जब घटना घटी तो एक- एक तार सामने आ रहे हैं।या यों कहिए कि हर घटना अपने साथ आत्मविश्लेषण भी लाती है।
शायद आज नहीं तो कल हमारे देश के विकास में मुख्य योगदान देने वाले इन लोगों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आए। इन मजदूरों के प्रति संवेदनशीलता दिखाकर हम अपने ही देश का उत्थान करेंगे ।देश का हर तबका मुस्कुराएगा, तभी तो देश मुस्कुराएगा। ये तो आगे भविष्य ही बताएगा कि इन घटनाओं की जड़ को कैसे रोका जाए?
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Ye log aise he mrte rehenge jab tak ki inki hamaiyat hum sab na samaj le…..ye hamare GDP growth Ka ek bda hissa rkte Hain..iske bawjood hame inki hamaiyat nhi haj….
Is incident ka vislesan krna bahot jaruri hai…aapka ye mudda uthana bikul shi hai…👌👌👌
Hamare yahan labour law mein ye to hai ki kaise majdooron ka khoon chusen but ye nahi hai ki koi dharatal pe rehkar inka dard dekhe…
Aaj kal ke dino mein to Government aur System ke khilaph bolne ka chalan chal chuka hai…Kya desh ke liye sochna kewal government ya government officials ka hi kaam hai….Ye humlogo ka ya hamare labours ka kaam nahi…
Unke saath jo hua ya ho raha hai wo galat hai lekin abhi jab saara desh is sankat ki ghadi mein apna apna yogdaan dene ka kosish kar raha hai to phir ye log kyu nahi ????
Totally agreed with Mr. Raj Sinha.. Yaha pe to kisi ki cycle puncture ho jaaye to woh bhi government ki hi galti hoti hai..
Khud koi bhi kisi bhi tarah ki responsibility uthana nahi chahta..
Superbly written emotions.
Well done.. Ms. P Sinha.. 👌👌
Aakhir kon hai ye log .. Kya ye society Kat hissa nahi hai..
Very well written…Thanks
No words ….