दोस्तों ,
स्वप्निल आँखें
बच्चों के जाने के बाद विनीता का जीवन फिर से एकाकीमय हो गया था | उधर उसके माँ -बाप भी चल बसे | रमेश भी पूरे दिन अपने काम में बिजी रहते थे | वैसे तो विनीता खुद एक बड़े ओहदे पे थी ,जिसके पास अपने काम से फुर्सत ही नहीं होती थी | लेकिन वह एक प्रिंसिपल के साथ -साथ एक पत्नी और एक माँ भी थी | एक औरत लाख सफलता की सीढ़ियां चढ़ जाए पर एक माँ और एक पत्नी के अस्तितव को कभी नहीं भूलती |
उधर बच्चे पढ़ -लिख कर विदेश में ही settele हो गए थे | यहाँ तक कि उन्होंने अपना घर भी बसा लिया था | अपने माँ -बाप को शायद वे भूल चुके थे या यों कहे कि अपने जीवन और अपने परिवार में इतने मशगूल हो गए कि माँ -बाप की सुध ही ना रही |
इधर विनीता अपनी सूनी आँखों में इंतज़ार की घड़ियां गिनती रहती थी | ना ख़त्म होने वाला इंतज़ार | ये कैसी विडम्बना है न जिन बच्चों को अपने सीने से लगाकर बड़ा किया ,वे ही उसकी बगिया में सन्नाटा पैदा किये हुए थे | ऐसा नहीं था कि रमेश को अपने बच्चों की परवाह नहीं थी | पर इस दर्द को उन्होंने कभी बिनीता के सामने जाहिर नहीं होने दिया और अपने आप को काम में बिजी कर लिया |
retirement के बाद तो सूना घर और खाने को दौड़ने लगा | | बस दीवारें थी और विनीता थी | रमेश सुबह में में जो निकलते थे ,उनका आना रात को ही हो पाता था |
बच्चे तो अब आने से रहे | कभी -कभार फ़ोन करके वहीँ से अपने माता -पिता का हाल -चाल ले लिया करते थे | फिर एक दिन ऐसा हुआ ,जिसका किसी को अंदाजा ही नहीं था | रमेश बीच मंझधार में ही अपनी पत्नी को अकेला छोड़कर चल बसे | | विनीता तो जैसे टूट -सी गयी | शायद उसकी किस्मत ही ऐसी थी कि खुशियां ज्यादा दिन नहीं टिक सकती थी |
अब इतने बड़े घर में विनीता नितांत अकेली हो गयी थी | सही कहा गया है -अकेलापन सबसे बड़ी बीमारी है ,जिसकी बस एक ही दवा है -अपनों का साथ |
पिता की मौत की खबर ने एकबारगी बेटों को भी विचलित कर दिया था | वे तुरंत भागे -भागे INDIA आ गए | विनीता ने जब बच्चों को देखा तो उसे कुछ ढाढस मिला | उस समय उसकी दशा उस धुप -छावं की तरह हो गयी थी ,जिसमे उसको समझ ही नहीं आ रहा था कि वह धुप की गर्मी महसूस करे या छांव की ठंडी | अपने पति के जाने का गम उसे साल तो रहा था पर साथ -साथ बेटों को भी देखकर उसकी आँखें तर हो गयी थी | जिन बेटों का इंतज़ार वह बरसों से कर रही थी ,उसे ये नहीं पता था कि ऐसी परिस्थिति में अपने बच्चों से मुलाकात करेगी | पिता की मौत ने ही उन्हें यहाँ आने को मजबूर किया था ,वरना उन्हें अपने माता -पिता की चिंता कहाँ थी ?
तेरहवीं के बाद विनीता ने बेटों से इन जिम्मेदारियों को सम्भालनें को कहा तो दोनों दोनों एक -दूसरे का मुंह देखने लगे | माँ -बाप इतने जतन करके अपने बच्चों को पढ़ाते -लिखाते हैं | उसे इस काबिल बनाते हैं कि समाज में वह अपनी पहचान बना सके | वही बच्चे बड़े होकर अपनी जिम्मेवारियों से मुंह मोड़ लेते हैं | दोनों में से किसी ने अपमी माँ के दर्द को नहीं समझा | उन दोनों का यही मन था कि यहाँ की सारी संपत्ति बेचकर माँ को साथ ले जाते हैं | वे दोनों तो इस हद तक गिर गए की माँ का भी बंटवारा कर लिया | 6 महीना एक बेटे के साथ तो 6 महीना दूसरे बेटे के साथ | ये कैसी विडम्बना है कि एक माँ -बाप कई बच्चों का लालन -पालन एक साथ कर सकते हैं ,पर वही कई बच्चे मिलकर भी एक माँ -बाप को नहीं पाल सकते |
अब निर्णय लेने की बारी विनीता की थी | उसने दोनों को तुरंत घर से जाने को कह दिया | इतनी मान -प्रतिष्ठा को विनीता और रमेश ने मिलकर संभाला था ,उसे कैसे बेचती | पर उम्र के इस पड़ाव में जब शरीर भी साथ नहीं देता है तो वह क्या करती | उसने अपनी सारी संपत्ति चैरिटी में दे दी | अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था | स्वयं को उसने वृद्धाश्रम के हवाले कर दिया | शायद उसकी यही नियति थी | जनम लेने के बाद अनाथाश्रम में पहुंची और जब बुढ़ापा आया और अपनों ने साथ छोड़ दिया तो वृद्धाश्रम में पहुँच गयी | कम -से -कम यहाँ उस जैसी छोड़ी हुई औरतों के साथ अपना दर्द तो साझा कर ही सकती थी |
विनीता का जीवन भी अनाथाश्रम से शुरू होकर वृद्धाश्रम में जाकर खत्म हुआ | यहाँ जाने कितनी औरतें इस इंतज़ार में रहती हैं कि उनके बच्चे आज नहीं तो कल उन्हें लेने जरूर आएंगे | विनीता के लिए तो ये इंतज़ार करना भी नहीं लिखा था |
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