🌶️🌶️🥵तीखी मिर्ची(Last Part)🌶️🌶️🥵
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हिचकोले खाती हुई बस धूल उड़ाती हुई आगे बढ़ रही थी।गांव की शीतल ब्यार और प्रकृति के मनोरम दृश्यों को देखते – देखते सीमा को कब नींद आ गई, स्वयं उसे भी पता नहीं चला।वो तो भला हो कंडक्टर का,जिसने अपनी तीखी आवाज में उसके गांव का नाम पुकारा तो जैसे वह हड़बड़ाकर उठ गई।रही- सही कसर शीशे से छनकर आती सूरज की किरणों ने पूरी कर दी।जैसे ही वह बस से उतरी, गांव की सोंधी – सोंधी मिट्टी की सुगंध सीधे उसके नथुनों में घुस गई।बरसों पुरानी इस गंध ने उसे झकझोर कर रख दिया,मानो अतीत की यादों को झांकने ही आई हो।सच भी तो है,एक अरसा बीत गया था अपने गांव से अलग हुए।यहां की मिट्टी में ही जन्म हुआ ,खेली – कूदी। पर अचानक से ऐसा क्या हो गया,जो उसे अपने गांव से दूर जाना पड़ गया।
बस से उतरते ही थोड़ा आगे पैदल चलने पर सीधी एक पगडंडी जाती थी।हां! वहीं पगडंडी जिसके टेढ़े – मेढे रास्तों पर उसके धूल से सने पैर दौड़ा करते थे।ना उस समय गंदगी की चिंता होती थी और ना ही समय की कोई पाबंदी थी।जीवन कितनी सरलता से बढ़ रहा था!सपने उड़ान भरते थे खुशियों के।ताजी हवा कभी इस गाल को छूती तो कभी उस गाल को मानो अठखेलियां कर रही हो।अगर सामने से कोई तितली दिखाई दे गई तो मन मयूर होकर नाचने लगता था और जिंदगी भी उसी तरफ भागती रहती थी।
पुरानी यादों के साथ – साथ सीमा के कदम घर की तरफ अनायास ही बढ़ते जा रहे थे।वो रहा सामने नीम का पेड़।जाने कितने जीवों का बसेरा था वहां।बचपन में इसी नीम के पेड़ पे झूला डालकर झूलती थी।तभी ठंडी हवा के झोंके ने पत्तियों में सरसराहट पैदा की।मानों वह पेड़ उसे देख के अपनी खुशी प्रकट कर रहा हो।अतीत को याद करके लिपट गई सीमा उस अडिग पेड़ से।जाने कितने मौसमों की मार खाई होगी पर अपनी जगह से हिला नहीं।कम – से – कम मनुष्य की फितरत को अपने पे हावी नहीं होने दिया।उसी से सटा हुआ था उसका घर जिसमें बहुत सारे सपने अंधेरी दीवारों में कैद थे।धूल – धूसरित ,बंद वीरान था जिसका अस्तित्व।चाभी उसी के पास थी।अपने कंपकंपाते हाथों से उसने दरवाजे को खोला।अतीत के पन्ने उसके सामने खुलते गए।
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मिट्टी की वो महक,छोटी – छोटी खिड़कियां,मिट्टी के चूल्हे सभी तो थे पर अपने बेजान अवस्था में।कहीं- कहीं तो दीवारों में लगी मिट्टियां भी भरभरा गई थी।तभी ऊपर से आती रोशनी की सीधी लाईन नीचे आती दिखाई दी,जिसमें धूल के हजारों कण हवा में तैर रहे थे।सीमा ने हाथ उठाकर छूने का बचकाना प्रयास किया।पर उन यादों को पकड़ नहीं पाई।सर उठाकर देखा तो छप्पड़ में सूराख नजर आयी।जिंदगी भी तो उसकी सूराख़ जैसी ही तो हो गई है,जिसे वो शायद ही भर पाए।घर के और अंदर जाने पर रसोईघर था,जहां बरसों पहले मिट्टी के चूल्हे पे मां गर्म – गर्म रोटियां सेकती थी।पता नहीं वह स्वाद कैसे विस्मृत हो गया या करना पड़ा।पूरा घर धूल – धूसरित था,पर था पुरानी यादों से भरा हुआ।एक – एक चीज में मां – बाबूजी की आवाजें गूंजती थी,जो मन को विचलित कर रही थी।
मन विहवल हो गया उसका।यादें भी कितनी निष्ठुर होती है ना मन को भींगा ही देती है।पर दोष किसे दे सीमा?किस्मत को या अपने आप को। अरी सीमा!केवल दौड़ – धूप करती रहेगी या घर का भी काम करेगी।जा! बाबूजी को पानी दे आ।पता नहीं ये लड़की कब मेरा हाथ बटाएगी?मां की मीठी झिड़की सुनकर भी सीमा के कानों में जूं ना रेंगती थी।झट से मां के गले लग जाती थी।तभी चेहरे पे पड़ती मकड़ी के जाले ने सीमा की तंद्रा भंग की।बिसूरती यादों के जालों में वह उलझ के रह गई थी।आंखों के कोरों से आंसुओं की कुछ बूंदें उसकी हथेलियों पर गिर गई।आज वह नितांत अकेली थी।कोई कंधा नहीं था,जिस पर सिर टिकाकर वह अपनी आंसुओं को बहा लेती।
मां- बाबूजी इस घर की नींव थे। एक भाई और एक बहन छोटा- सा परिवार था।सीमा छोटी थी। बाबू जी ने खून- पसीना एक कर के भाई को पढ़ाया था। बचपन से उसे घर की समस्याओं से दूर रखा और शहर भेज दिया था पढ़ने को। नतीजा क्या निकला भइया कभी हम लोग से उतना जुड़ नहीं पाए। छुट्टियों में भी कभी-कभी आते थे तो उन्हें गांव की आबोहवा रास नहीं आती थी। जब मां मनुहार करके बोलती थी कि बेटा दो-चार दिन के बाद जाना।पर वह छुट्टियां ना होने का बहाना करके जल्द ही लौट जाना चाहते थे। बचपन से ही मां- बाबूजी की आंखों में अपने बेटे के लिए तड़प देखी थी।ऐसे भावनात्मक संवाद का कोई अर्थ नहीं रह जाता है जब तक दिल से दिल ना जुड़े हों।
पढ़ाई पूरी करने के बाद भैया ने शहर में ही नौकरी कर ली। बाबू जी तो बाहर के कामों में अपने आप को व्यस्त रखते थे। पर मां उनका दिल तो बेटे के लिए तड़प उठता था। भइया के जाने के बाद मैं ही मां- बाबूजी का आखिरी आसरा थी। पूरे गांव में दौड़ते- भागते रहना, कभी बकरियों के पीछे तो कभी झट से अमरूद के पेड़ पर चढ़ जाना मानो मेरी जिंदगी इस गांव के सुरमई वातावरण में ही रच – बस गई थी। मां मीठी झिड़कियां सुनाती तो बाबू जी लाड लगाते।
जिंदगी ने मानो हंसने का दूसरा किनारा ढूंढ लिया हो। तभी साइकिल की घंटी बजी और बाबूजी को डाकिए ने एक पत्र थमाया। चिट्ठी को जैसे ही उन्होंने पढ़ा, धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गए। बाबूजी की हालत देखकर मैं तो घबरा ही गई थी। उनके हाथ से चिट्ठी लेकर मैंने अक्षरों पर हमला किया तो मेरा भी दिल धक से रह गया। भइया ने वहीं शहर में ही शादी कर ली थी और गांव कभी ना आने का अल्टीमेटम दे दिया था। मां ने जब यह सुना तो लगा कि उनका अस्तित्व ही हिल गया हो। जिस बेटे को 9 महीने पेट में रखा, पैसा इकट्ठा कर पढ़ाया – लिखाया। आज यह नौबत आ गई थी कि बेटा ने अकेले शादी कर ली,मां – बाबूजी को भी बुलाना जरूरी ना समझा। गांव से उसे इतनी नफरत क्यों थी यह बात मैं आज तक समझ ना पाई।पर किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था। भइया के इसी स्वभाव ने तो सीमा का दिल गांव से और जोड़ दिया था। अब किया भी क्या जा सकता है?
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THE SECOND BIRTH OF MY LIFE———–“MOTHER”
एक कसक लेकर मां बाबूजी अपनी जिंदगी को बस ढोए जा रहे थे। भविष्य में आने वाले तूफान को कभी कोई समझ पाया है जो सीमा समझती। पूरे गांव में महामारी फैल गई थी जिसमें उसकी मां और फिर बाबू जी दोनों ही चल बसे। इतनी बड़ी दुनिया में सीमा अकेली रह गई। भाई पर क्या ऐतबार करती। गांव से दूर जाना नहीं चाहती थी पर अकेले जीवन कैसे गुजरता। भइया के पास तार भेजा इस दुखद घटना का। समाज को देखते हुए अगले दिन भइया तो आ गए पर भाभी नहीं आई। वह उसे अपने साथ शहर ले आए।नीम का वो मदमस्त पेड़, जिसकी छितराई पत्तियां कभी उसका बसेरा हुआ करती थी आज उस से नाता टूट रहा था।वो गीले – गीले मिट्टी के रास्तें,पक्षियों का कलरव,सुबह – सुबह मुर्गे का बांग देना या रात में खुले आसमान के नीचे मां- बाबूजी के साथ सोना पता नहीं इन गहरी यादों के बिना वह शहर में कैसे जी पाएगी?
शहर तो आ गई थी पर भाभी के स्वभाव ने उसे वहां ज्यादा दिन टिकने नहीं दिया। नौकरी की तलाश में जुट गई सीमा। शायद अपनी जिंदगी को फिर से वापस पटरी पर लाने की जद्दोजहद करनी थी। जो बेटा अपने मां बाप का नहीं हुआ एक बहन कैसे उम्मीद लगाती।आखिर उसको नौकरी मिल ही गई। एक कमरे का मकान भी ले लिया सीमा ने। पर अपने गांव को नहीं भूली। छितराया हुआ वो नीम का पेड़ उसे बार-बार अपनी तरफ बुला रहा था। तभी तो इतने अर्से के बाद वह अपने बंद पड़े घर से, अपनी यादों से मिलने आ ही गई।
मन कितना बावड़ा होता है। यादों की गठरियों को उठाते- उठाते कब सांझ हो गई पता ही नहीं चला।वो तो पेट में चूहे दौड़ने लगे तो ध्यान भटका उसका।शायद मां की गर्म – गर्म फूलकी रोटियां याद आ गई हों।आंखें छलछला उठीं सीमा की।उसके दुख को देखते हुए नीम भी मानों बरस रहा हो।
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Behad hi khubsurat tarike se likha gaya lekh…Bahut khub…
Very very nice story….
After reading your this creation I also had a flashback of my childhood.. Thank u for making me emotional..