🌶️🌶️🥵तीखी मिर्ची(Last Part)🌶️🌶️🥵
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कफ़न भी क्या चीज़ होती है ना जिसने बनाया,उसने बेचा।जिसने खरीदा उसने इस्तेमाल ही नहीं किया और जिसने इस्तेमाल किया ,उसे यह ज्ञात ही नहीं है।
ऊपर के ये चंद शब्द जीवन के यथार्थ का कितना सजीव चित्रण करते हैं ये मेरी कहानी में झांककर देखिए और किसी को कितना मजबूर और बेबस बनाते हैं ,वो उन गरीबों से पूछिए जिनकी मिल्कियत में आंसू के सिवा कुछ नहीं होता।जिंदगी क्या- क्या खेल खेलती है ,ये दर्द सहने वाले ही बता सकते हैं,जिनके नसीब में कफ़न तक नहीं होता।अभाव ,बेबसी इसी को तो कहते हैं।मेरी कहानी की नायिका की जिंदगी भी तो इसी के इर्द गिर्द घूमती है।
चूड़ियां ले लो,रंग – बिरंगी चूड़ियां,साजन को भाती कांच की चूडियां ऐसे – ऐसे कितने सारे मनमोहक शब्दों को वाक्यों में पिरोकर अपने अंदर के दर्द को छुपाते हुए गलियों के चक्कर लगा रही थी सविता।जेठ की भरी दुपहरी में माथे पे छलक आए पसीने को अपने आंचल से पोंछते हुए यही सोच रही थी कि काश सारी चूड़ियां बाज़ार में बिक जाए।पर गरीबी है ही ऐसी चीज कि बुरी किस्मत हमेशा उनकी जरूरतों पर भारी पड़ जाती है।चिलचिलाती धूप में एक – एक घर के सामने गला फाड़ के चिल्लाते जा रही थी।कभी – कभी तो सूखे गले से आवाज़ ही नहीं निकल पा रही थी।इस भरी गर्मी में उसकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं था।अजीब पशोपेश में थी कि अगर चूड़ियां नहीं बिकी तो खाएगी क्या?अपने घर की माली हालत से भलीभांति वाकिफ थी,तभी तो एक अनजाना डर हमेशा उसके दिमाग पे हावी रहता था।दो वक़्त की रोटी किसी गरीब के लिए क्या मायने रखती है ,ये वही बता सकते हैं जिनकी कितनी सांझें बिना चूल्हा जले बीत जाती है।
बचपन से ही जिंदगी चकमा देते आई थी।गरीब घर में जन्मी अपने मां – बाप के लिए बोझ समान थी,तभी तो 16-17साल की उम्र में बाप ने उसे एक बूढ़े के हाथ बेच दिया और अपने सर से बेटी का बोझ उतार लिया।वो तो सविता की किस्मत अच्छी थी या यों समझ लीजिए कि अपने हालात से लड़ना सीख गई थी।तभी तो मौका देखकर वहां से भाग निकली।
पर इस बड़ी दुनिया में उसका अपना कहने वाला कोई नहीं था।भूख – प्यास से विकल होकर यूं ही भटक रही थी कि उसे सामने एक चाय की दूकान दिखी।पैसे तो थे नहीं उसके पास।पर भूखा पेट इस चीज को कहां समझता है।खाने की ओर बराबर से देखे जा रही थी पर किसी को उस पर दया नहीं आयी।जो जूठन नीचे पड़ा हुआ था,उसे ही पागलों की भांति खाने लगी।पापी पेट कैसे किसी को मजबूर कर देता है,वह गरीब भली भांति जान गई थी।
पर कहते हैं ना कि हर कोई इतना निष्ठुर नहीं हो सकता।बहुत देर से एक ग्रामीण वहीं बेंच पे बैठकर चाय पी रहा था और उसकी हर गतिविधियों पे भी नजर गड़ाए हुए था। किसना नाम था उसका,पास के ही गांव का रहने वाला था।सविता को देखकर उसे बड़ी दया आ रही थी।आगे बढ़कर जूठन उठाते बीच में ही उसका हाथ पकड़ लिया।अचानक से आई गिरफ्त ने उसे अचंभित कर दिया।किस्मत ने उसे बहुत ठगा था।गरीबी में पैदा हुई,बाप ने सामान समझकर बेच दिया।किस पर भरोसा करती।यही सब सोचकर उसने किसना का हाथ झटक दिया।जब किसना ने उसे अपना परिचय दिया और भरोसे वाली बात बोली तो पता नहीं क्यूं सविता को उसकी आंखों में सच दिखने लगा।अपनी आपबीती सुनाते – सुनाते उसकी आंखों से अश्रु धारा बहने लगी।आज पहली बार उसे लग रहा था कि कोई तो है, जो भरोसे के लायक है।
किसना उसे समझा – बुझा कर अपने घर ले आया।एक साथी की जरूरत उसे भी थी।परिवार के नाम पर अकेला ही था।मां – बाप एक हादसे का शिकार हो गए थे।कुछ दिनों के बाद दोनों ने शादी कर ली।किसना खेत में हल चलाता और सविता घर – गृहस्थी देखती।दोनों पुरजोर कोशिश कर रहे थे अपनी किस्मत सुधारने में।किसना सविता को हर वो खुशी देना चाहता था,जिसकी वह हकदार थी।समय धीरे – धीरे भाग रहा था।उसके आंगन में भी दो बच्चों की किलकारियां गूंजने लगी।सचिन और राधा उसके दो बच्चे थे।अपने पहले के दुख को भूलकर अपनी गृहस्थी की गाड़ी को खुशी – खुशी आगे बढ़ा रही थी।पर किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था।
रोपनी का समय आ गया था इसलिए किसना को बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी। रात में भी वह अपना काम निपटाता रहता। एक दिन शाम को थका – मांदा घर आया। चेहरे पर उसकी बड़ी चमक थी।एक किसान के लिए अपने लहलहाते खेतों से बढ़कर और कोई खुशी हो ही नहीं सकती। महीनों की मेहनत उसके खेत में लहलहा रही थी।फसल पककर तैयार थे।सोचा था अनाज को बेचकर सविता और दोनों बच्चों के लिए नया कपड़ा लाएगा।बहुत दिनों से सभी नए कपड़े नहीं पहने थे।गरीबों को तो ऐसे ही मौकों की जरूरत रहती है।खुद के धोती में भी कई एक जगह छेद हो गई थी। जल्दी से मुंह हाथ धोकर उसने खाना मांगा। बच्चों के बारे में पूछा तो सरिता ने बाहर आंगन की ओर इशारा किया। दोनों भाई- बहन वहां तन्मय से खेल रहे थे। मुस्कुराहट भरी आंखों से उसने जल्दी-जल्दी खाना खत्म किया। उसे कल का इंतजार था अपनी फसलों को काटने का।
उधर किस्मत तो कुछ और ही बयां कर रही थी।दिन भर का थका – मांदा तो था ही, लेटते ही नींद आ गई।अचानक रात में तेज आवाज से उसकी नींद खुल गई। चारों तरफ से हो हल्ला हो रहा था। आग लग गई! भागो।हाय रे! मेरी फसल जल गई। इस तरह की आवाजों को सुनकर उसने गमछा कंधे पर डाला और निकल भागा। सविता पीछे चिल्लाती रह गई क्या हुआ क्यों भागे जा रहे हो। पर वह गरीब बदहवास सा दौड़ जा रहा था। दिल की धड़कन तेज हो गई थी। सामने खेतों में उठते आग की लपटन ने उसकी सारी फसलें और सामान को स्वाहा कर दिया।जल गई उसकी सारी फसलें और साथ में अरमान भी जलकर राख हो गए। सर पर हाथ रखकर वह वही धम्म से बैठ गया। अगर सविता पीछे ना होती तो वह गिर पड़ता। एक गरीब की किस्मत को तो देखो। लाख मेहनत करने पर भी अपनी किस्मत से लड़ नहीं पाया। एक गरीब पैदा होता ही है गरीब और मौत भी उसकी गरीबी में ही हो जाती है बिल्कुल किसना की किस्मत की तरह।
फसलों के जल जाने से घर की आर्थिक स्थिति डगमगा गई। दूसरों के लिए अनाज पैदा करने वाला किसान खुद दो जून रोटी के लिए तरसने लगा। इस आग ने सविता को घर के बाहर काम करने के लिए मजबूर कर दिया। हुआ यूं कि अपनी मेहनत को जाया होता देख किसना इस दुख को झेल नहीं पाया और खाट पकड़ ली। शरीर कमजोर हुआ तो दस तरह की बीमारियों ने भी जकड़ लिया। उसे टीवी हो गया था। घर के जो भी जमा पैसे थे सब उसकी बीमारी में चले गए। क्या सपना देखा था और उसका रूपांतरण किस तरह से होना था किसना ने सोचा ही नहीं था। घर में खाने के लाले पड़ गए। सब गांव वालों ने भी टीबी के कारण साथ छोड़ दिया। बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे।किसना का भी इलाज कराना जरूरी था। दो पैसे कमाने के लिए सविता को बाहर निकलना ही पड़ा।एक बार फिर सविता अपनी किस्मत से लड़ने के लिए तैयार बैठी थी।
पर शुरुआत करने के लिए पैसे की जरूरत आन पड़ी।कोई कर्ज देने वाला भी नहीं था।इसी सोच विचार में डूबी थी सविता। तभी अचानक से उसका ध्यान अपने बक्से पर गया। पिछले साल ही किसना ने फसलों की कटाई के बाद जो आमदनी हुई थी उससे कान की बाली ला कर दिया था। सोने की चमक ने उसकी आंखों में भी चमक ला दिया। एक रास्ता नजर आने लगा गरीब की आंखों में। कान की बाली को बेच कर जो पैसे आए उससे उसने चूड़ियां खरीद ली और गली-गली जाकर बेचने लगी। किसी दिन बिक्री होती तो चूल्हा जलता नहीं तो सभी पेट पे कपड़ा बांध कर सो जाते। किसना खाट पर पड़े- पड़े निरीह आंखों से बस सविता को देखा करता था।क्या सोचा था और क्या दिन देखना पड़ रहा है। जब सविता काम से लौटती तो बच्चे उसकी आंचल में कुछ खाने की चीज खोजने लगते। अपने बच्चों की विवशता देख कर सविता को अपनी किस्मत से नफरत होने लगी थी। सबके सामने तो नहीं पर कोने में दो आंसू जरूर बहा देती।
घर की आर्थिक स्थिति एकदम डांवाडोल हो गई थी।खाने – खाने के लिए मोहताज हो गए सभी।नए कपड़े पहनने का सपना तो सभी के लिए दूर की बात थी।गरीबी फंटे कपड़ों में झलकने लगी थी।किसना की तबीयत भी दिनोदिन बिगड़ती का रही थी। पैसे के अभाव में ना ढंग से दवा मिल पा रही थी और ना ही भोजन।अपने अभाव से सविता लड़ रही थी।उम्मीद पे ही तो उसने अपना जीवन काटा था,आंसू के कतारों से मुस्कुराना छांटा था।गरीब होता ही है ऐसा कि आधा निवाला भी बांट कर खाता है।खुद भूखी रह जाती पर अपने पति और बच्चों के लिए दो निवाला जरूर बचाकर रखती।
गर्मी में दिन भर गलियों की खाक छानती तो दो वक्त की रोटी नसीब हो पाती थी। किसी- किसी दिन तो वह भी नदारद रहता। उसे अपने पति की बड़ी चिंता हो रही थी। किसना की हालत ठीक नहीं थी। अब तो उसके मुंह से खून आने लगा था। एक अहले सुबह चूड़ियां बेचने के लिए वह घर से निकली पर पता नहीं क्यों आज उसका जी बहुत घबरा रहा था। सोची थी कि जल्दी-जल्दी चूड़ियां बेचकर घर चली जाएगी। किसना उस समय सोया हुआ था। बच्चों को समझा-बुझाकर आई थी। एक घर के सामने खड़ी होकर चिल्लाए जा रही थी एक अनजाने डर और आस के साथ कि कोई किवाड़ खोलकर उसकी चूड़ियां ले ले।तभी एक औरत चूड़ियां लेने के लिए निकली। आंखों में उम्मीद के दिए जलने लगे उसके।कितनी चिरौरी कर रही थी सविता उस औरत की ताकि वो चूड़ियां ले ले।अचानक पीछे से अपने बच्चों की तेज आवाज को सुनकर उसका दिल धक से रह गया।
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बच्चे जार- जार रोए जा रहे थे और एक सांस में ही कह गए कि बाबा की आंखें उल्टी हुई हैं और शरीर में भी कोई हरकत नहीं है।सविता के हाथ से चूड़ियों की टोकरी छिटककर दूर जा गिरी।सारी चूड़ियां चकनाचूर हो गईं और टूटे कांच की तरह ही जिंदगी भी चटक गई।टोकरी वहीं फेंक पागल सी दौड़ती अपने घर आयी।वहां का मंजर देखते ही छाती पीट – पीट कर रोने लगी।कीचड़ से निकालने वाला उसका सबसे बड़ा साथी बीच मंझदार में ही छोड़कर चला गया।आज वही जिंदगी की डोर उससे अलग हो गई थी।बच्चे अलग ही रो रहे थे।अपना कहने वाला कोई नहीं था उसके पास,जिसके कंधों पे सर रखकर रो सके।
किसी गांव वाले ने उसकी ओर देखा तक नहीं।टीबी के कारण सभी ने उससे मुंह फेर लिया था।किसी औरत के लिए इससे बुरा दिन और क्या होगा,जब अपने पति के अंतिम संस्कार भी खुद करे।पर यहां भी पैसा आड़े आ गया।लकड़ी का इंतजाम तो किसी तरह से कर ली,पर कफ़न के लिए उसके पास पैसे नहीं बचे। कम से कम मरने के बाद ही सही किसना नया कपड़ा तो पहनेगा।पर मदद के लिए कोई आगे नहीं आया।
बच्चों की मदद से सविता ने किसना को बैलगाड़ी पर लेटाया और दौड़ गई अंतिम संस्कार करवाने। कफ़न के नाम पर उसने अपनी धोती डाल दी उसके बेजान शरीर पर।पुराना ही सही लिबास तो मिला पर मरने के बाद।
शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया पर एक मलाल जिंदगी भर उसे सालता रहेगा कि पति की अंतिम विदाई हुई भी तो पुराने कपड़ों में ही।पर एक सुखद अहसास जरूर था कि दो गज जमीन ही सही पर किसना को मिल्कियत तो मिली,जिसपर उसका खुद का ही अधिकार था।मौत ने उसे कम से कम जमींदार तो बना ही दिया।
पागलों की तरह हंसे जा रही थी वह।शायद अपनी किस्मत पर या अपनी उम्मीदों पर या अपनी जिंदगी पर।बनाने वाले ने भी क्या क्या सोच रखा था उसके बारे में।उम्मीद है कि टूटती नहीं,जिंदगी भी रुकती नहीं।बस अपने बच्चों के लिए जीना था।फिलहाल वह अपने बच्चों के लिए निकल पड़ी रोटी के जुगाड में।भूख रोटी देखता है,गरीब के आंसू नहीं।
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Nice story….
Bilkul dil ko chu liya is kahani ne…..shaandar likha aapne👌👌👌👌