🌶️🌶️🥵तीखी मिर्ची(Last Part)🌶️🌶️🥵
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महल खड़ा करो या गुमान करो अपनी 100एकड़ जमीन पर
पर इस दुनिया से रुखसत होगें बस दो गज जमीन पर
सारी चमक – दमक फीकी पड़ जाती है
जब कपड़ों के नाम पर बस कफ़न ही रह जाती है
ख्वाहिशें इंसान की मिल्कियत होती है
झूठ के पुलिंदो पर ही उसकी दुनिया बुनती है
जानकर भी वह यथार्थ से दूर भागता है
पर अंत में अपने आप को दो गज जमीन पर ही पाता है
समाज बंटता है,रिश्ते बंटते हैं
हम अपनी जिंदगी में यूंही भागते रहते हैं
मृग – मरीचिका की दुनिया में बस दो गज जमीन ही है हमारी मिल्कियत
यही औकात है सबकी,यही है हकीकत
जाति के नाम पर चलता रहता है दांव – पेंच का ताना – बाना
पर ये सब धरे रह जाएंगे,नहीं दिखता है सच का आइना
महत्वाकांक्षाएं हमारी जमींदोज हो जाएगी
अंत में दो गज जमीन पर ही औकात हमारी आएगी
सुलह कर लो आपस में
सच्चाई से मुंह मोड़ना नहीं है हमारे वश में
आना बंद मुट्ठी में,जाना खुले हाथ
जीवन – मृत्यु का इतने भर का है साथ
बड़ी – बड़ी मंजिलें खड़ा करते हो
पैसे की चकाचौंध में ही अपनी दुनिया बसाते हो
खून – खराबा ,झूठ – फरेब का चलता है नंगा नाच
सब कुछ मिट्टी में मिल जाएगा,यही है सच की आंच
मनुष्य की पिपासा का कभी नहीं होता है अंत
सब कुछ धराशाई हो जाएगा,जब होगा प्राणांत
रंग – बिरंगे कपड़े शरीर पर सजते हैं
मरने के बाद तो कफ़न ही लिबास बनते हैं
कभी अपने आप से मुलाकात के क्षण में मिट्टी को छूती हूं
इसी मिट्टी में खुद को मिटाने की हामी भरती हूं
जिंदगी भर अपने आप को अनदेखा करते रहते हैं
अपनी सही औकात के वजूद को तलाशा करते हैं
कंक्रीट की दीवारों के बीच में अरमानों की आस
जीवन दो दिन का खेला है,अब तो बुझा लो लिप्सा की प्यास
अमीरी – गरीबी की खींची होती है दीवार
पर अंत में दो गज जमीन पाकर सभी बन जाते हैं जमींदार
घड़ी बांधकर वक़्त को कोई रोकेगा
भागदौड़ के बीच में कब कोई सुकून के दो पल तलाशेगा
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क्यूं समय के साथ रंगत भी चली जाती है
जिंदा रहते हुए क्यों दो गज जमीन की याद भी नहीं आती है
ऐ मुसाफिर!कभी रस्ते में चलते – चलते मंजिल की तो थाह पा ले
दो पल कभी अपने लिए भी निकाल ले
जिंदगी सुकून से भरी हो,यही सोचते वक्त निकल जाएगा
अंत में, अपनों को छोड़ खुद को दो गज जमीन पर ही पाएगा
दो गज जमीन ही है हमारा शाश्वत सत्य
यादों को दफन कर दे ,बस यही है हमारी असली हकीकत
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