मनाली की वो रातें😳😱😳😱(Part –3)
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शहर की बाहरी सीमा से सटा हुआ था वो विधवाश्रम,जहां के नए इंचार्ज बनकर आए थे विनय बाबू।अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण तलाश का ये अंतिम पड़ाव शायद यही हो,यही सोच मन में रखकर शहर के सारे विधवाश्रमो को खंगाल डाला और अपना तबादला करवाते रहे।बड़े – बड़े ओहदों को ठुकराकर विधवा आश्रम की खाक छानने में पता नहीं क्यूं इतनी दिलचस्पी दिखा रहे थे।शायद उनकी खोज वह कलंकिनी ही हो, जिसे समाज ने उस अबला के माथे पे जड़ा था, बिना उसके दुख को समझे हुए।विधवा आश्रम के पास ही एक किराए का मकान ले लिया ,जहां अकेले ही रहते। शादी हुई नहीं थी। परिवार तो वैसे भरा – पूरा था — मां- पिताजी,एक छोटा भाई और एक बड़ी बहन, जिसकी शादी हो चुकी थी। पर आधुनिक विचारों और उनकी जिद ने उन्हें अपने परिवार से दूर कर दिया। पिताजी पुराने ख्यालों के थे जबकि विनय बाबू के विचार सामाजिक बंधनों से जकड़े हुए नहीं थे। मां असमंजस में रहती कि बेटे का पक्ष ले या पति की। बाप – बेटे के विचारों में हमेशा तनातनी चलती ही रहती।
मां को लगता था कि विनय अपना घर बसा ले तो शायद उसकी जिंदगी की उलझन को विराम लग जाए। पर विनय की यही एक जिद थी कि शादी करूंगा तो आशालता से वरना ना करूंगा,जो उनके पिताजी को कतई मंजूर ना था।यही कारण था कि विनय बाबू अभी तक कंवारे थे। जाति से बंगाली ब्राह्मण ,सामाजिक मान्यताओं की दहलीज को लांघकर कोई यहां प्रवेश करे ये बात उनके पिताजी को मंजूर नहीं थी।घर में कोई भी काम होते तो पूरे धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से।पर विनय बाबू आधुनिकता का जामा पहने सामाजिक कुरीतियो के खिलाफ हमेशा डटकर खड़े रहते ।कहते हैं ना कि जिस तरह एक म्यान में दो तलवारें एक साथ नहीं रह सकती,उसी तरह दो विपरीत विचारधाराएं एक साथ जीवन के संगम में नहीं मिल सकती।विनय बाबू अपने पिताजी की हर बात मे अड़ंगा लगाने लगे थे।अब आप इसे आधुनिकता बोलिए या उनका अपने पिताजी के प्रति रोष।आए दिन घर में तूफान उठता ही रहता।
अब यहां पे पाठक गण ये सवाल जरूर उठा सकते हैं कि आखिर उच्च शिक्षा की प्राप्ति के बाद उन्होंने विधवा आश्रम ही क्यूं चुना अपने काम के लिए?ये आशालता कौन है?जिसके साथ ही विनयबाबू शादी करना चाहते थे।चलिए आपको कहानी के फ़्लैश बैक में ले चलते हैं।यही कोई 20-25 साल पहले की बात है।विनय बाबू के पिताजी अनिरुद्ध घोष शहर के जाने – माने प्रतिष्ठित व्यक्ति थे।पेशे से वकील होने के कारण जिरह में कोई इनसे जीत नहीं सकता था।इनके कायदे – कानून बड़े सख्त होते थे,जो हमेशा सामाजिक दायरे से ही गुजरता।कर्मकांडों में अचूक आस्था रखनेवाले अनिरुद्ध घोष के दरवाजे पर हमेशा मुवक्किलों की भीड़ लगी रहती।शायद ही कोई case हारे हों।उस समय विनय की उम्र यही कोई 12-13 साल की होगी।
एक दिन सुबह के समय में वे अखबार पढ़ रहे थे,तभी दरवाजे पे दरबान के बहस की आवाजें कानों में पड़ी।बाहर जाकर देखा तो एक औरत अपनी 12 साल की बेटी के साथ खड़ी अंदर आने की भरसक कोशिश कर रही थी।अनिरुद्ध घोष के इशारे पे दरबान ने उसे अन्दर आने दिया।अंदर आते ही वह औरत उनके चरणों में गिर गई।पीछे वो मासूम लड़की सफेद कपड़ों में सूनी आंखों से एकटक अपनी मां को देखे जा रही थी।जीवन के इन्द्रधनुष उसके सफेद कपड़े रूपी बादलों के पीछे छुप गए थे शायद।पता नहीं इन बड़ी – बड़ी आंखों में क्या था,जिनकी रामकहानी सुनने को अनिरुद्ध घोष विकल हो उठे।ऐसा भी नहीं था कि सामाजिक उद्धार करने की बात आती तो उनके कदम जरूर उठते?इसमें भी संशय ही था। एक अजीब सन्नाटा पसरा था उन आंखों में,जिसमें ना अपने कल की चिंता थी और ना ही पहले घटी घटनाओं का संस्मरण ।बस था तो एक स्याह अंधेरा,जो समाज ने उसके चारों तरफ फैला दिया ।
ढांढस बंधाते हुए उन्होंने उस औरत को उठने के लिए कहा। रोते – रोते उसने बताया कि पास के ही गांव की वह रहने वाली थी।उसकी बेटी का नाम आशालता है,जिसकी शादी बचपन में ही उसके पिताजी ने कर दी थी।विवाह का मतलब ना समझते हुए आशालता अपने ससुराल में बहुत खुश थी।हर समय उसका उछलना – कूदना लगा रहता।पर किस्मत को भी उसकी खुशी देखी नहीं गई।शादी के एक साल के अंदर ही आशालता के पिताजी स्वर्ग सिधार गए।उसकी मां पर तो मानों मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। आय के एकमात्र स्रोत तो वही थे।पर मुसीबतें यहीं पर नहीं रुकी थी।अपने पिताजी का गम वह भूली भी नहीं कि भाग्य ने उसके जीवन के सारे रंग छीन लिए।आशा के पति की किसी दुर्घटना में मौत हो गई। जो लड़की विवाह का मतलब तक ना जानती हो,उससे ये कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह इस शोकाकुल समय को समझ सके।पर परिवार के ताने और समाज की अपेक्षाएं कभी रुकी हैं क्या?यह कहानी भी उस समय की है जब देश में सामाजिक कुरीतियां, बंधन अपनी चरम सीमा पर थे। बंगाल तो ऐसे भी विधवाओं के मामले में सख्त रहा है।ये तो सर्वविदित है कि सामाजिक बंधनों की मार हमेशा से औरतें ही सहती आयी हैं।
जिस ससुराल में उसके पाजेब की झंकार चारों कोनों में सुनाई देती थी, पति के मरने के बाद उसे कलंकिनी घोषित कर दिया। उसकी सास ने एक चिट्ठी के साथ आशालता को अकेले ही उसके मायके भेज दिया । अपनी बेटी को सफेद कपड़ों में दरवाजे पे खड़ी देखा तो उसकी मां की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। चिट्ठी पढ़ने के बाद दोनों मां बेटी गले लग कर खूब रोए।उस समय आशा की उम्र 10-11साल की रही होगी,जब दुख को अच्छी तरह से व्यक्त करना भी नहीं जानती थी।
बस न्याय दिलाने और आशालता को ससुराल में वापस भेजने के लिए ही वो गरीब अनिरुद्ध घोष के दरवाजे पे आयी थी।अपना जीवन तो किसी तरह से बीत जाता पर बेटी की पहाड़- सी जिंदगी कैसी कटती। वकील साहब को उनकी कहानी सुनकर दया आ गई।पर वे इस बात से भली- भांति परिचित थे कि बंगाल में विधवाओं को किस तरह के दृष्टिकोण से देखा जाता है,मानों वे अपने पापों की सजा भुगत रही हों।न्याय की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।उसके ससुराल वाले कभी उसे नहीं स्वीकारते।अगर वह स्वयं भी उन लोगों की जगह पर होते तो क्या आशा को स्वीकारते,ऐसे ही अनेकों प्रश्न उनके दिमाग में उठ रहे थे कि तभी पत्नी गुस्से से आग – बबूला होते हुए अन्दर प्रवेश की यह बोलते हुए कि ये कामवाली ना ,हर दूसरे – तीसरे दिन छुट्टी ले लेती है।इसका तो पत्ता मैं साफ कर ही दूंगी।
अचानक से एक विचार उनके मन में कौंधा। अगर मैं इस बच्ची को अपने यहां काम पर रख लूं तो हमारा काम भी हो जाएगा और इनका गुजर-बसर भी। बस फिर क्या था आशा की मां को समझाया, सामाजिक नियमों की दुहाई दी और अपने यहां काम पर रखने की भी बात बोली।और कोई चारा ना देख उसकी मां ने भी बात मान ली और आशा को कल से काम पे भेजने का आश्वासन दे दिया।
पता नहीं वो मासूम अपनी सूनी आंखों से कहां देख रही थी कि तभी उसकी मां ने उसका हाथ पकड़ा और दोनों जाने लगी। अचानक से एक 12-13 साल का लड़का हाथ में गेंद पकड़े हुए आशालता से टकरा गया था।हां! वह विनय ही था, जो बाहर से खेलते हुए अंदर घुसा। उसकी चपलता ने आशा की सूनी आंखों को बरबस देखने के लिए मजबूर कर दिया।विनय, ओ विनय आ जा बेटा! खाना खा ले। मां की ममतामयी आवाज जब उसके कानों में पड़ी तो तुरंत वह भागा। प्रथम दर्शन की प्रथम अभिव्यक्ति बाल मन समझ ना पाया,पर एक कौतुक जरूर था। अगले दिन जब विनय स्कूल के लिए तैयार हो रहा था, तभी सामने से आती आशा पर उसकी नजर ठहर गई। अपनी मां से जब उसने पूरी कहानी सुनी तो मन बहुत खुश हो गया। पता नहीं यह खुशी क्यों थी? पर विनय को अच्छी लग रही थी आशा की उपस्थिति।
धीरे – धीरे समय ने करवट ली।आशा भी थोड़ा – थोड़ा मुस्कराने लगी थी विनय के साथ।स्कूल से वापस लौटते ही विनय उसे अपने साथ खेलने के लिए जिद करने लगता।आशा भी उसका इंतज़ार करती रहती थी।देखते – देखते 3साल गुजर गए।दोनों किशोरावस्था को लांघने लगे थे।बालपन की अठखेलियां पहले घर के लोगों को खलती नहीं थी पर अब उनके आचरण दिखने लगे थे। मां कितनी बार टोक चुकी थी पर विनय को तो आशा के बिना मन ही नहीं लगता था। हद तो तब हो गई जब उसने आशा को रंग बिरंगी चूड़ियां उपहार में देनी चाही।एक विधवा रंग को अपने जीवन में शामिल करे,ऐसा कभी हुआ है क्या?
जैसे ही पिताजी की नजर दोनों पर गई, तमतमाते हुए आए और एक थप्पड़ विनय के गाल पर ऐसी जड़ी कि सारी चूड़ियां छिटक कर दूर जा गिरी चकना चूर होकर। आशालता थरथर कांप रही थी। उस पर जो गाज गिरने वाली थी वह अलग ही थी।विधवाएं कभी अपने जीवन में खुशियों को दोबारा आने नहीं दे सकती शायद यह पगली भूल चुकी थी और सामाजिक बंधनों को ताक पर रख दिया था। रंग उसके जीवन के लिए नहीं बने थे।
पता नहीं मेरी मति मारी गई थी जो मैंने इसपर तरस खाकर काम पर रख लिया था।एक बार फिर आशा के कानों ने कलंकिनी शब्द को सुना।अब वह इसका मतलब भली- भांति समझने लगी थी।अगले दिन ही आशा को घर से निकाल दिया गया।विनय का तो रो- रो कर बुरा हाल था।पर अनिरुद्ध घोष को अपने बेटे से ज्यादा अपनी सामाजिक इज्जत प्यारी थी।आशा कहां गई,किस हाल में होगी,किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।विनय किसी तरह से अपने को संभाले हुए था।पर एक उदासी अभी भी चिपकी हुई थी उसके दिल पे।आशा की सूनी आंखों का इंतजार शायद उसे अब भी था या यों बोलिए कि एक अनकहा प्रेम विरोध का रूप ले रहा था – सुलगती हुई आग।
समय पंख लगा कर उड़ चला।विनय उच्च शिक्षा के लिए बाहर चला गया पर उसकी तलाश आशा की आंखों की कभी खत्म नहीं हुई। तभी तो पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह घर लौटा तो उसने ऐलान कर दिया कि अगर वह शादी करेगा तो आशा से वरना नहीं करेगा। उसके विचारों से पिता हमेशा खफा रहते थे। उन्हें यह स्वीकार ही नहीं था कि कोई विधवा इस घर की बहू बनकर आए। विनय बाबू ने हर संभव कोशिश की आशालता को ढूंढने की पर असफल रहे।पर उनकी तलाश अभी खत्म नहीं हुई थी। वे आशा के गांव भी गए थे। वहां जाकर पता चला कि आशा की मां का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। हां! गांव वालों से मालूमात करने पर पता चला कि कुछ समय पहले तक सफेद कपड़ों में लिपटी एक युवती जरूर नजर आती थी पर वह अब कहां गई किसी को कुछ पता ना था। किन हालातों में होगी आशा,सोचकर ही विनय की आत्मा कराह उठी।
विनय ने अपने जीवन का ध्येय ही बना लिया आशा को ढूंढने का।इसके लिए घर से निकलना जरूरी था,वरना मनसा कभी पूरी नहीं होगी।शहर के सारे विधवाआश्रमों को विनय ने खंगाल डाला।पर आशालता का कुछ पता ना चला।बस ये अंतिम पड़ाव था, जो शहर की बाहरी सीमा पर स्थित था।वहीं के इंचार्ज बनकर आए थे।
प्रेम में पागल व्यक्ति की तलाश अपने प्रेम के लिए कभी खत्म नहीं होती। बचपन का वह लगाव इतना आत्मीय हो जाएगा, परिकल्पना से बाहर की बात थी। उस दिन भारी बारिश हो रही थी । अंधेरा छा गया था।उस अंधेरे में वह अपने कमरे में लालटेन जलाने की कोशिश करने लगे। बिजली इतनी तेजी से कौंधी कि माचिस छिटककर दूर जा गिरी।अचानक कमरे में पदचाप की आवाज ने उन्हें चौंका दिया।तभी लालटेन की बत्ती सहसा जल उठी।उस लौ की रोशनी में उन्होंने जिन आंखों को देखा, एक सनसनी सी दौड़ गई उनके जिस्म में। बच्चे से बड़े हो गए थे, चेहरा बदल गया था पर उन आंखों को हजारों की भीड़ में भी पहचान सकते थे।ये तो मेरी आशा है कहते हुए भावतिरेक में गले से लगा लिया।आशा असमंजस की अवस्था में एकटक देखे जा रही थी।शायद अतीत का घाव फिर से हरा हो गया था।विनय बाबू ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।कहां थी तुम अब तक,कैसी हो,इतने दिन तक मैंने तुम्हे कहां- कहां नहीं ढूंढा?
आशा चुपचाप विनय बाबू की बातें सुनती जा रही थी,जमीन की ओर निगाहें करते हुए।क्या बताती वह कलंकिनी जो समाज ने उसके माथे पे जड़ा था।आखिर उसका कसूर क्या था ?किस्मत ने कैसे- कैसे रंग दिखाए उसके जीवन में ,क्या- क्या बताए अपने जीवन की गाथा।बहुत कुरेदने पर वह फट पड़ी।आसूं मानों किसी अपने के पूछने का ही इंतजार कर रहे हों भला।
उस दिन विनय बाबू के घर से निकाले जाने के बाद जब वह अपनी मां के पास गई तो वहां से भी आभागी कहकर उसे घर में घुसने नहीं दिया।किसी तरह से उसने रात काटी।कहीं ठौर ठिकाना तो था नहीं उसका।कहीं भी काम मांगने जाती तो उसके कलंक के किस्से पहले ही पहुंच जाते।दुनिया ने जो जुल्म किया उस पर ,उसका दुख अपनी मां के निकाले जाने से कम ही था।एक बार भी उस जननी ने अपनी बेटी के बारे में नहीं सोचा।किसी तरह से भीख मांगकर अपने दिन काट रही थी कि उसकी मां की मौत ने उसे अन्दर से तोड़ दिया।गई थी अपने मां के घर अंतिम संस्कार में शामिल होने को। कुछ दिन रही पर वहां रुक ना सकी।एक विधवा की, समाज की दृष्टि में जो जगह है,शायद इसी डर से वो ऐसा ठिकाना खोज रही थी,जहां उसे कोई ना जानता हो।
फुटपाथ पे किसी तरह दिन कट रहे थे।एक दिन यूंही भीख मांगने निकली ,तो मारे भूख के चक्कर खाकर गिर पड़ी।आंखें खुली तो अपने आप को इस आश्रम में पाया।कहते – कहते मानों आंखें डबडबा गईं आशा की।एक निरवता सी छा गई वातावरण में।विनय बाबू का दिल पिघल आया।बेचारी ने क्या- क्या सितम नहीं सहे।बचपन से लेकर आजतक के सारे दर्द आशा ने अकेले ही सहे।पर अब नहीं।समाज जो कहे,चाहे बिरादरी में मेरी जगह रहे चाहे ना रहे पर अब आशा को दुख सहने ना दूंगा।यहां से दूर ,जहां समाज की नजर ना पड़े वहां आशा के साथ नई जिंदगी शुरू करूंगा।विनय बाबू की तलाश अब जाकर खत्म हुई।समाज के लिए वो कलंकिनी थी,पर अपने विनय के लिए सब कुछ।प्रेम का असली प्रतिफल यही तो है,जब बंधन के सारे दीवार गिर जाएं।
निम्मी! अरी! ओ निम्मी, कहां रह गई है रे, आवाज देते हुए मिताली ने बिस्तर से उठने की कोशिश की, पर उसकी बीमार...
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Literary….. the story u hv written is a rebuke to the thinking of the society….Nice Di 👌👌🙏
Bahut shandaar likha aapne…dil ko chu gaya👌👌👌👌
Hamare society ka black side hai….bhaot khub likhaaaa…