🌶️🌶️🥵तीखी मिर्ची(Part –9)🌶️🌶️🥵
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कर्नल समरजीत सिंह बड़े ही देशभक्त और अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। देश की मिट्टी की महक उनके रगों में खून की तरह बहती थी। और हो भी क्यों ना,दादा – परदादाओं के समय से ही फौज में जाने की इच्छा बलवती होती रही थी। उनके दादा जी भारत – पाकिस्तान की लड़ाई में शहीद हो गए थे। पिताजी भी लेफ्टिनेंट रहे। देश की मिट्टी तो खून में ही थी। दो दिन के बाद रिटायरमेंट होने वाली थी। नाम तो बहुत कमाया पर एक चीज का अफसोस उन्हें जिंदगी भर सालता रहा। उनके बेटे करमजीत सिंह को फौज में नहीं जाना था। उसकी नौकरी एक मल्टीनेशनल कंपनी में लग गई।
अपने भविष्य को देखते हुए वह अमेरिका में बसने की तैयारी भी करने लगा। दुख इस बात का नहीं था कि बेटा फौज में क्यूं नहीं गया, बल्कि अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में रहने की बात से ही वे चिंतित रहने लगे। कहां तो वह रिटायर होने के बाद अपने शहर पंजाब में जाने की तैयारी कर रहे थे और कहां ऐसी परिस्थितियों से घिर गए। करमजीत उनका इकलौता बेटा था, पत्नी बेटे को छोड़ नहीं सकती थी। अकेले रहकर वो क्या करते?
अपने फेयरवेल पार्टी में उनके कामों की इतनी प्रशंसा हुई कि सीना गर्व से ऊंचा हो गया। कई मेडलों और रिटायरमेंट पत्र लेकर वे अपने घर में जैसे ही घुसे, देखा करमजीत अपनी मां से अमेरिका की एक बड़ी कंपनी के बारे में बात कर रहा था। पिता को देखते ही चुप हो गया। पर उन्होंने सारी बात सुन ली थी। कितना दुख होता है जब अपनी ही औलाद आपकी सिद्धांतों की अवहेलना करे। पर आज की पीढ़ी क्या समझेगी इन भावनाओं को। सोचा था जिस मिट्टी में जन्म लिया,वहीं मिल जाऊंगा। अपने वतन को छोड़ने भर से ही आंखें गमगीन हो गई। कैसे मेरी बाकी की जिंदगी कटेगी, ये सोचकर ही दिल रो उठा।
रिटायरमेंट के ठीक 5 दिन बाद ही अमेरिका के लिए प्रस्थान करना था। अंतिम समय तक उन्होंने बेटे को मनाने की बहुत कोशिश की, पर जो अपने देश को पिछड़ा समझकर दूसरे देश को प्राथमिकता दे रहा है, उससे उम्मीद भी क्या की जा सकती है। आखिर वो दिन आ ही गया,जब समरजीत को अपना देश छोड़ना पड़ा। केवल अपना मन रखने के लिए एक छोटी सी पोटली में अपने देश की मनमोहक खुशबू अपने देेेश की मिट्टी को साथ लेते गए।
अमेरिका पहुंचते ही बेटा तो अपने काम में व्यस्त हो गया। पत्नी भी घर के कामों में व्यस्त रहने लगी। पर एक पल भी समरजीत का मन नहीं लग रहा था। देश की मिट्टी को छू छूकर उनके दिन बीत रहे थे। अपने दुख को समरजीत ने एक कागज पर उकेरना शुरू कर दिया। दिल की सारी बातें अक्षरों में समाहित हो गईं।
इधर कुछ दिनों से समजीत की तबीयत ठीक नहीं रह रही थी। डॉक्टर को दिखाया तो रिपोर्ट में कुछ खास नहीं निकला। पर उनकी तबीयत दिनों- दिन बिगड़ती जा रही थी। फिर कुछ टेस्ट हुए जिसमें कैंसर निकला और वो भी अंतिम स्टेज में। सारी जिंदगी अनुशासन में बीता, स्वास्थ के प्रति कोई लापरवाही नहीं दिखाई, पर जीवन के अंतिम पड़ाव पर वे अपने आप को संभाल नहीं पाए। या यों समझ लीजिए कि ख़ुद को अपने देश की मिट्टी से कभी अलग कर ही नहीं पाए।आखिर अपने दिल की अंतिम इच्छा को दिल में बसाकर एक दिन अपने बेटे को पास बुलाया और कहा कि मुझे अपने देश ले चलो। मेरे प्राण वहीं टूटे,यही मेरी अंतिम इच्छा है। इतना कहते कहते कब सांस टूट गई, पत्नी और बेटा देखते ही रह गए। पिता के जाने के बाद करमजीत को पहली बार अपनी ग़लती का अहसास हुआ कि अपने पिता को यहां लाकर कितनी बड़ी ग़लती कर दी।
उस दिन करमजीत अपने पिता की यादों को उलट पुलट कर रहा था कि एक फाइल में पिता की लिखी ढेर सारी चिठ्ठियों का पुलिंदा हाथों में आ गया। उसमे लिखे एक- एक अक्षर पिता के दिल की सारी बातें उजागर कर रहे थे। करमजीत अपने आंसुओं को रोक नहीं पाया। मन में एक निश्चय कर मां को सामान पैक करने के लिए बोल दिया। पिता के शरीर की मिट्टी को देश की मिट्टी में मिलाकर ही चैन से बैठूंगा और अपने पापों का प्रायश्चित भी करूंगा। देश की मिट्टी किसी के लिए इतना महत्व रख सकती है,अपने पिता को खो कर जाना। बचपन में पिता की दी हुई एक- एक सीख आंखों के सामने चलचित्र की भांति घूमने लगी। शायद अपनी गलतियों का यही प्रायश्चित हो।
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