मनाली की वो रातें😳😱😳😱(Part –3)
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सालों बीत गए देश को छोड़े हुए,पर वहां की आबो– हवा को आज तक सैम भूला नहीं। भारत की मिट्टी, उसमें से निकलती सोंधी खुशबू ,वहां की संस्कृति क्या – क्या नहीं आंखों के सामने घूम जाते हैं। विदेश में प्रवास करने वाले या किसी भी विषम परिस्थितियों के कारण अपने देश छोड़ने वाले एक NRI की कहानी ,उसी की कलम 🖋️ से। दूर रहकर भी एक प्रवासी अपने दिल में अपने देश के लिए क्या जज्बा रखता है, ये सुखबिंदर उर्फ सैम ही बता सकता है।
जन्म देने वाले मां– बाप का चेहरा जब आंखों के सामने आता तो आंखें पनीली हो जाती हैं। पालक माता पिता तो इस दुनिया में नहीं हैं। पर उनकी सारी जायदाद की बागडोर उसी के हाथों में है। पत्नी एमी और दो बच्चों के साथ जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ रही है। पर इस आलीशान और मॉडरेट बंगला में सुखबिंदर अभी भी गांव की बयार को ढूंढता है। सजावटी गमलों में सरसों की फलियां को नजरों के सामने पाता है।
सोफे पे बैठकर वह अपनी यादों को ताजा कर ही रहा था कि तभी पीछे से उसकी पत्नी एमी उसके कंधों पे अपना हाथ रखती है। पनीली आंखों को छुपाते हुए एमी से बच्चों के बारे में पूछता है।तभी दोनों बच्चे उसके गोद में बैठ जाते हैं ।अपनी कहानी वह इन सबके बीच कहना चाहता है,बांटना चाहता है।
ढोल की थाप पर पैर थिरक रहे थे
अबकी
बैशाखी में अपने देश आऊंगा
सरसों के खेतों के बीच में दौड़ लगाऊंगा
वो देश मेरा,वो स्वदेश मेरा
पुकारता है मिट्टी का कण कण
तू आ जा,तू आ जा ,तू आ जा माही मेरा।।
15 अगस्त 1947 देश तो आजाद हुआ पर बंटवारे की कीमत पर। जाने कितने लोग बेघर हो गए। दो कौमों ने दिलों के भी बंटवारे कर दिए। इस विभाजन का दंश आज भी सुखविंदर सिंह की आंखों में छलक जाता है। आज के समय में भले ही वे सुखविंदर से सैम बन गए हों पर अपने देश के लोगों की बिछुड़न से उनके दिल में आज भी एक हूक – सी उठती है।
उस वीभत्स दिन को भूलना इतना आसान भी तो नहीं है। पंजाब के एक छोटे से गांव में पले- बढ़े, जहां सरसों के खेतों में ही जिंदगी पसर रही थी। भरा- पूरा परिवार था। उनकी उम्र यही कोई 15-16 साल की रही होगी। देश के बंटवारे की खबर ने भूचाल- सा ला दिया। बगावत की आंधी पूरे देश में फ़ैल गई,जिसको जहां पनाह मिलता, वहीं छुप जाता। हजारों की तादाद में लोग पाकिस्तान जाने की तैयारी करने लगे। कितने औरतों, बच्चों का कत्लेआम हो गया। इसी आंधी में सुखविंदर का परिवार भी चपेट में आ गया। मां- बाप के साथ सुखविंदर ट्रेन पे चढ़े जरूर, पर पिता के हाथों से हाथ कब छूट गया, पता ही नहीं चला। एक झटके में ही जिंदगी अर्श से फर्श पे आ गई।सुखविंदर का तो रो- रो कर बुरा हाल था।
एक अनजान देश में अपने आप को कैसे संभालता सुखविंदर। ना कोई छत थी और ना ही कोई ठिकाना। 3-4 दिन से कुछ खाया नहीं था। किसी होटल के सामने हाथ भी फैलाया पर सिवाय दुत्कार के कुछ नहीं मिला। अपने देश की, मां- बाप की बहुत याद आ रही थी। पाकिस्तान में कोई भी उसके जान- पहचान का नहीं मिला, जो उसकी मदद कर सके। भूख से आंतें सिकुड़ने लगी।तभी सामने एक कुत्ते पे नज़र गई, देखा जमीन पे गिरा खाना चाट रहा था। कुत्ते को भगाकर खुद पागलों की तरह गिरा खाना खाने लगा। इस बंटवारे के दर्द ने सुखविंदर जैसे कितने मासूमों को घर से बेघर कर दिया, ये कोई सरकार क्या समझेगी।
अपना पेट पालने के लिए उसने किसी होटल में ही बर्तन मांजने का काम ढूंढ लिया, जहां उसे खाना भी मिल जाता था। रात में सड़क किनारे ही सो जाता। दिन ऐसे ही कट रहे थे, पर अपनी जिंदगी को यूं ही जाया करना उसे मंजूर नहीं था। वह किसी मौके की तलाश में था, ताकि वहां से निकल सके। एक दिन यूं ही सोचनीय मुद्रा में बैठकर अपने अतीत में झांक रहा था कि तभी किसी के चिल्लाने की आवाज कानों में पड़ी। पीछे देखा तो एक विदेशी महिला चिल्ला रही थी। सामने नजर दौड़ाई तो एक 5-6 साल का बच्चा बॉल लेने के लिए सड़क के बीचों- बीच पहुंच गया था। गाड़ी का आना- जाना था। कभी भी कुछ हो सकता था। दौड़कर सुखविंदर ने बच्चे को गोद में उठा लिया।उसकी मां दौड़ती हुई आई और बच्चे को अपने सीने से चिपका लिया। ममता का यह रूप देखकर सुखविंदर रो पड़ा।अपनी मां की बहुत याद आई उसे।
विदेशी दंपति ने उसकी कहानी सुनी,जिसको सुनकर वे लोग भी रो पड़े।एक जुड़ाव सा महसूस होने लगा उस बच्चे के साथ। सारी कहानी सुनने के बाद उन दंपति ने यह निश्चय लिया कि वे लोग सुखविंदर को अपने साथ लेते जाएंगे।
किस्मत कौन सा चक्कर लगा दे, ये किसी को पता नहीं होता। सुखविंदर के साथ भी तो यही हुआ था। अब उसकी किस्मत अमेरिका से जुड़ने वाली थी। वहां पहुंचने के बाद सुखविंदर की जिंदगी ही बदल गई। स्कूल में एडमिशन हो गया। रहना, खाना, पहनावा सब बदल गए। अब वह सैम हो चुका था। इतना बदलने के बावजूद दिल में अभी भी अपने देश की मिट्टी की भीनी – भीनी खुशबू दबी हुई थी। समय ने करवट ली और उसे एक अच्छी सी कंपनी में नौकरी मिल गई। इतना होने के बावजूद एक दुख हमेशा उसके सीने में दबा रहता था। अपने माता- पिता को ढूंढने की बहुत कोशिश की पर उनका पता नहीं चला।
सरसों के लहलहाते खेत उसकी आंखों के सामने हमेशा नाचते रहते। इस देश को बुरा भी वह नहीं कह सकता था, जहां उसे ठौर ठिकाना मिला। पर अपने देश की तो बात ही अलग होती है। अपने पालक माता पिता के एहसान तले दबा हुआ था।इसलिए यहीं का होकर रह गया। भारत में मनाई जाने वाली त्यौहारों की बहुत याद आती थी। यहां भी भारतीयों की कई मंडलियां थी, जो मिलकर त्योहारों का आयोजन किया करती थीं। सैम उसमे बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करता।
ये सब चीजें उसे बहुत संतुष्टि देती थीं। यही तो होता है प्रवासी लोगों का दुख। काम या किसी और कारण से दूसरे देशों में बस तो जाते हैं, पर अपने देश को भुला नहीं पाते। सुखविंदर तो किन त्रासदियों से गुजर कर यहां तक पहुंचा, ये दुख आज भी उसके सीने में जल रहा था। कहां कहां नहीं अपने परिवार को खोजा पर निराशा ही हाथ लगी। साल बीत गए,उसकी शादी एक गोरी मैम से हो गई, जिनसे दो बच्चे हुए।अपने बच्चों को वह अपने देश के बारे में बताया करता था। वहां के रीति रिवाज, संस्कार के बारे में बात करना उसे बहुत मानसिक संबल प्रदान करता। कहते – कहते उसकी आंखों से आंसू भी छलक जाते। इतने साल बीत गए पर अपने देश की एक- एक बात याद थी। पता नहीं मेरे मां– बाप कहां हैं,हैं भी या दुनिया से रुखसत हो गए हैं, यही सोचते – सोचते सुखविंदर मर्माहत हो उठता था।
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