जज़्बात
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नदियाँ गहरी, नाव पुरानी,
सुनाता हूं तुमको इक बच्चे की कहानी,
जब जन्म लिया उसने,
नहीं पता था कि कौन है वो,
और सभी की तरह,
उंगली पकड़ कर चलना सीखा,
किसी भी इन्सान में,
उसे दुश्मन नहीं दिखा,
बचपन में किसी भी मैदान और मकान में खेल लिया करता था,
ये घर ऐसा क्यूँ है, वो कस्बा ऐसा क्यूँ है,
ये लोग ऐसे क्यूँ हैं, वो लोग ऐसे क्यूँ हैं,
कभी भी कुछ भी ऐसा नहीं सोचा करता था,
बड़ा हुआ तो पता चला,
वो मैदान मस्जिद का और मकान मन्दिर था,
ये हिन्दू और वो मुसलमाँ हैं,
फिर ऐसा क्या है कि इनमें इतनी दूरियाँ हैं,
क्या इन्हें ये पता नही,
कि ये भी इन्सान हैं और वो भी इन्सान हैं,
जिसको किसी ने देखा नहीं,
सभी उसी मालिक की सन्तान हैं।
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सीधा– साधा दिलहो गई है मुश्किलथी जिंदगी उसकी बेपरवाहहर फिक्र को उड़ा रहा था वहपर अचानक क्या हुआएक एह...
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Very nice 👍.. Agar ye hi samjh gaye log to mit jaengi sabhi duriyan
This is such an irony of human , dividing society and human on the basis of religion, caste, status, gender and many more criteria.. God has made us with the same body structure. Such a beautifully written lines.. I am so so much proud of your writing. All the best 👍 for the next one..