🌶️🌶️🥵तीखी मिर्ची(Last Part)🌶️🌶️🥵
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बचपन से ही प्रकृति के सानिध्य में रहा हूं।जंगलों के हरे –भरे पेड़ मुझे बड़े ही अच्छे लगते।पिता जी फॉरेस्ट इंस्पेक्टर थे।उनका तबादला हमेशा भारत के बड़े से बड़े और बीहड़ जंगलों में हुआ करता,जिसके कारण मुझे हमेशा इन पेड़ों का सानिध्य मिला करता था।सच कहूं तो पिता जी की तरह ही मेरे भी प्राण इन पेड़ों में बसा करते।
कभी कभी तो पिताजी की पोस्टिंग ऐसे बीहड़ जंगलों में होती कि दूर– दूर तक कोई भी शहर या गांव का निशान भी नही होता तो कभी ऐसे भी गांवों को देखा ,जो अंधविश्वास और पिछड़ेपन से भरा पड़ा था।इन लोगों की दुनिया जंगल से शुरू होती और जंगल पे ही खत्म हो जाया करती थी।इसबार पिताजी का तबादला गुजरात के एक छोटे से गांव में हुआ।सरकार की तरफ से क्वार्टर तो मिले ही थे।रात की ड्यूटी होती।अंधेरा बढ़ने पर कई तरह की आवाजें रूह कंपा देती।उस समय मेरी उम्र यही कोई 10–12साल रही होगी। मैं,पिताजी और मां ये तीन लोग ही थे घर में।हां! एक सरकारी अरदली भी हमारे साथ रहता ,नाम था–बुद्धूराम।पर नाम के ठीक विपरीत उसके दिमाग की सुई घूमती।हमेशा मां–पिता जी की चापलूसी किया करता था।
पिता जी जब रात में जंगलों में गश्त लगाया करते,उस समय ये आवाजें मुझे बहुत डराया करती।मां तो पिताजी के साथ रहते– रहते अभयस्त हो गईं थी,पर मैं तो बच्चा था।हमेशा मन में एक अनजाना डर पिता जी के लिए समाया रहता।पिता जी अपने काम के प्रति बहुत ही ईमानदार थे।मजाल था,जो उनके रहते जंगलों में पेड़ों की तस्करी हो जाए।दादा– दादी के गुजर जाने के बाद इन पेड़ों में ही अपनी खुशी ढूंढते थे।जबसे नौकरी लगी थी,तब से अपने आप से एक प्रण किया था, जहां भी रहूंगा एक पेड़ जरूर लगाऊंगा।आए दिन पर्यावरण असंतुलन की खबरें उन्हें हमेशा परेशान किया करती थी।
जहां हमारा क्वार्टर था,ठीक 1km की दूरी में एक गांव बसा था, बुद्धराम उसी गांव का रहने वाला था।पिताजी रात में गश्त लगाया करते थे,इसलिए उन्होंने हमारी सुरक्षा के लिए उसे घर में ही रहने की जगह दी थी।वह हमेशा पिता जी के आगे– पीछे करता रहता था।कभी पिताजी उसको बोलते कि अपने गांव भी घूम आओ पर साफ इंकार कर देता।परिवार के नाम पर पत्नी और दो बेटियां थी पर वह जल्दी गांव जाना ही नही चाहता।
यहां आए हुए 1महीना से भी ज्यादा हो गए थे।मेरे साथ खेलने वाला कोई नही था।एक दिन यूंही मैं बरामदे में बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी मैंने बुद्धुराम को एक लड़के के साथ आते देखा,जो मेरी ही हमउम्र का था।नाम था–घसीटा।मुड़े –तुड़े कपड़ों में जब वह पास आया तो बरबस मां का ध्यान उसके बंद मुट्ठी पे चला गया।उसने अपने हाथ पीछे कर लिए।जब मां ने उसके सर पे हाथ फेरा तो झट से उसने मां के आंचल में खट्टी– मीठी इमली डाल दी।उसकी इस हरकत से हम सभी हंस पड़े।पता नही क्यों,मां को घसीटे में बड़ा अपनापन दिख रहा था।
मां ने जब बुद्धूराम से पूछा कि ये लड़का कौन है? तो उसने एक ठंडी सांस लेकर बड़े ही अफसोस के साथ कहा कि ये मेरा भतीजा है।3–4साल का था,तभी मेरे भाई और भाभी कालाजार की चपेट में आ गए थे। दवाा– दारू का तो कोई सवाल ही नही था गांव में।बस झाड़़– फूंक से ही इलाज चलता रहा।अंधविश्वास की गठरी लादे ये गांव वाले खुद ही अपना नियम बनाते।अगर कोई इसमें हस्तक्षेप करता तो उसे बिरादरी से बाहर होने की धमकी मिल जाती।बाहरी दुनिया से कटकर इनकी जिंदगी चल रही थी।ना बिजली थी और ना ही पानी की उचित व्यवस्था।कोई बीमार पड़ता तो लोग बोलते कि देवता का श्राप है,झाड़ फूंक से ही उतरेगा।घसीटे के मां– बाप के साथ भी तो यही हुआ।हकीम के पास ना जाकर टोने– टोटके करवाए।तेज ज्वर होता तो बाबा के तरफ से ये सूचना मिलती कि देवता गुस्सा रहे हैं।शरीर भी कब तक बीमारी से लड़ता रहता। विपदा आनी थी,सो आ गई। तीन महीने भी नही बीते थे कि उसका देहांत हो गया।घसीटे की मां भी इसी चिंता में खाट पकड़ ली।एक दिन अचानक से अपने 3साल के बच्चे को इस दुनिया में अकेला छोड़कर उसके भी प्राण –पखेरू उड़ गए।बेचारा घसीटा,ले दे के एक बूढ़ी दादी बची थी,उसी ने मासूम को पाला ।
पर वह भी कब तक जिंदा रहती।1साल हो गए उनको मरे हुए।मेरी पत्नी का स्वभाव इस बच्चे के लिए ठीक नहीं है।इसलिए मैं इसे यहां ले आया।कुछ काम भी कर लेगा और छोटे मालिक, यानी कि मैं ,के साथ खेल भी लेगा।मां ने उसे अपने पास बुलाया और और उससे पूछा कि भूख लगी है क्या? कुछ खाएगा? पथरीली आंखों से उसने सर हिलाया। घसीटे का नाम भी यूं ही घसीटा नहीं पड़ा, जब वह 1 साल का हुआ तब अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था ,घसीट –घसीट कर आगे बढ़ता। बस तभी से नाम घसीटा पड़ गया। मां-बाप हकीम के पास ना जाकर उसे बाबा के पास ले गए। उसी ने सलाह दी कि इस बच्चे को रोज जमीन के नीचे कमर तक मिट्टी में दबा कर रखो। वह तो भला हो घसीटे की दादी का जिन्होंने पैरों की अच्छी तरह मालिश की और उसे अपने पैरों पर खड़ा किया वरना आज वह अपने नाम के अनुरूप ही घसीटा रहता।
एक सुबह पिता जी घर आए। बड़े ही सोचनीय आवाज में मां से घर का हाल-चाल लिया।पानी मांगा और धम्म से सोफे पे बैठ गए।मां को आश्चर्य हुआ क्योंकि इससे पहले पिताजी जब भी काम से घर आते,तुरंत गुसलखाने में घुसते ,हाथ पैर धोते और फिर मेरे साथ खेलते थे। उनकी चिंतित अवस्था को देखकर जब मां ने सवाल किए तो उन्होंने कहा कि कल रात जब मैं जंगल में चहलकदमी कर रहा था। मुझे अचानक से कुछ पदचाप सुनाई दिए, ऐसा लगा मानो कुछ लोग आपस में खुसुर –फुसुर कर रहे हैं।कुछ लोगों के भागने की भी आवाज़ आने लगी। जब मैं उनकी बातों को सुनने का प्रयास किया तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये लोग पेड़ों को काटकर उन्हें बेचने वाले हैं। बस तब से ही मेरी चिंता बढ़ गई है। आज तक मेरे काम करने के दौरान कभी ऐसा ना हुआ हो कि पेड़ काटे गए हों।वन माफिया वाले हमेशा मुझसे दूर –दूर ही रहे हैं।तभी उनकी नज़र घसीटे पे गई।सवालिया निगाहों से मां की ओर देखा तो मां ने सारी बात बता दी।
चलो! अच्छा है इस बच्चे को यहां काम भी मिल जाएगा और तुम लोगों का मन भी लग जाएगा। बात आई– गई हो गई, घसीटा भी धीरे-धीरे हमारे परिवार का अंग बनते जा रहा था। बिन मां– बाप के बच्चे के साथ मां बड़ा ही लाड़ दिखाती थी। मेरा तो दोस्त ही बन गया था वह। दिन भर भागदौड़ करके मां के काम में हाथ बंटाता और खाली समय में हम दोनों साथ खेलते।
पेड़ों की संख्या दिनों– दिन कम होती जा रही थी। पिताजी को समझ ही नहीं आ रहा था कि चोर का पता कैसे लगाएं? बुद्धूराम और घसीटा कुछ दिनों के लिए गांव गए हुए थे। कोई सुराग हाथ नहीं लग रहा था। पिताजी की चिंता मुझे भी परेशान कर देती। अगर समय पर इस चोरी को नही पकड़ा गया तो पिताजी की नौकरी भी जा सकती थी।
कुछ दिनों की छुट्टी के बाद जब दोनों वापस आए तो घसीटा तो पहले की तरह ही काम पर लग गया पर बुद्धूराम की कुछ– कुछ गतिविधियां मन को बड़ा ही शंकित कर रही थी। जैसे मैंने एक बार बुद्धूराम को दो अनजान लोगों के साथ चुपके से बात करते हुए देखा। बीच-बीच में वह कनखियों से आसपास नजर दौड़ा लेता था। कभी-कभी तो दो-तीन घंटे के लिए अचानक से गायब हो जाता।
पर एक बात और आश्चर्यचकित कर देने वाली थी यह थी कि घसीटा जब से गांव से लौटा था, थोड़ा बदला– बदला प्रतीत होता था। ऐसा लगता मानों उसकी आंखें मां से कुछ कहना चाहती हैं।पहले मां को वह अपनी हर बात बताया करता था, पर इधर कुछ दिनों से उसकी आंखें हमेशा डरी – सहमी हुई होती। जैसे ही मां को बताने के लिए मुंह खोलता, अपने आसपास नजर दौड़ा लेता,मानों किसी से डर रहा हो।अगर बुद्धुराम दिख गया तो अचानक से चुप हो जाता।
दिनों– दिन कम होते जा रहे पेड़ पिताजी की चिंता का कारण बनते जा रहे थे। कोई सुराग हाथ लग ही नहीं रहा था। एक दिन शाम को अचानक से बिजली चली गई। मां घसीटा– घसीटा कह कर आवाज दे रही थी ताकि वह हरेक कमरे में रोशनी कर दे पर घसीटा का कोई पता नहीं था। तभी मां को अचानक से ध्यान आया कि जब भी घसीटा दुखी होता तो घर के पास ही एक पेड़ के नीचे बैठ जाया करता था। मां खोजते– खोजते जब वहां आई तो देखा की शाम के धुंधलके में वह बच्चा अकेला जाने किस सोच में बैठा है, जैसे ही मां ने उसके सर पर हाथ फेरा, अचानक से वह खड़ा हो गया मानों भूत देख लिया हो।
जैसे ही मां पे घसीटे की नजर गई, वह फफक– फफक कर रो पड़ा। क्या हुआ घसीटे, आजकल तू बड़ा शांत–शांत रह रहा है। जब से गांव से लौटा है, ना ढंग से खाता है और ना ही बात करता है । ममताभरी बातों को सुनकर वह फट पड़ा और जो बात उसने बताई,उससे हमारे पैरों तले जमीन ही खिसक गई।हुआ यूं कि तीन– चार दिन के लिए जब दोनों गांव गए हुए थे,वहीं पे उसे पता चला कि बुद्धूराम गांव के मुखिया के साथ मिलकर पेड़ों की तस्करी कर रहा था।उसके एवज में उसे लाखों का इनाम मिलने वाला था।पर संजोग से बुद्धूराम को पता चल गया कि घसीटा को उसकी सच्चाई पता चल गई है।अब उसे यह डर सताने लगा कि घसीटा साहब से सब कुछ कह देगा।इसलिए उसने घसीटे को डराना– धमकाना शुरू कर दिया था।यहां तक कि कई बार शारीरिक यांत्रणा भी दी उसको।पैसों के लालच ने उसे अंधा कर दिया था,तभी तो अपने भतीजे पे भी कोई दया नही आई उसे।
मां ने उसे दुलारा– पुचकारा और मेरे साथ खेलने को भेज दिया।फिर पिताजी को सारी बात बताई।उन्हें तो अपने कानों पे भरोसा ही नहीं हुआ।अपने ही घर में पनाह देकर उन्होंने अपने पैरों पे कुल्हारी मारी थी।आनन– फानन में ही पुलिस को इतिल्ला करके बुद्धूराम और गांव के मुखिया को धर दबोचा।फिर उन दोनों के सहारे वन माफिया गिरोह भी पकड़ा गया।और इन सबका कारण था घसीटा।पिताजी ने उसके सर पे हाथ फेरा और उसे शाबाशी दी।
साल यूंही बीतते गए।घसीटा का तो इस दुनिया में कोई नही था।वह गांव जाकर क्या करता?मेरे घर में ही रहने लगा।एक दिन पिताजी तबादले की चिट्ठी मां को सुना रहे थे।हमें 5दिन के बाद यहां से निकलना था।पिताजी ने घसीटे को बुलाया और उसे कुछ पैसे दिए कि वह गांव जाकर अपनी जिंदगी शुरू करे।इन बातों को सुनकर बस वह सूनी आंखों से उन्हें देखे जा रहा था।उसे खुद पता नही था कि वह क्या प्रतिक्रिया करे।और एक दिन हम उसे छोड़कर वहां से चले गए।
साल दर साल बीतते गए।पिताजी के रिटायरमेंट का समय आ गया था।अपने कार्यकाल के दौरान जंगलों की अपने बेटे से भी बढ़कर सेवा की।यही भावना मेरे अंदर भी थी। मैंने भी अपना करियर इसी को समर्पित किया।पिताजी और मां ने अपनी बाकी जिंदगी अपने पुश्तैनी गांव में बिताना चाहा।बंजारनों की जिंदगी से उकता गए थे वे लोग।और मैं ,मेरी नौकरी लग गई वन अधिकारी के रूप में।2–3साल पे तबादले होते रहते थे।इस बार मेरी पोस्टिंग वहीं हो गई,जहां घसीटे का गांव था।सरकारी क्वार्टर भी मिले। मैं अपना समान उतरवाने के लिए वहां पास में ही खड़े एक आदमी को आवाज दी।उस समय तो मैं उसे पहचान नहीं पाया।पर जब उसका नाम लेकर पीछे से किसी ने आवाज़ दी,तो सालों पहले उसका चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया।
वो घसीटा ही था।फिर उसने मुझे भी पहचान लिया।समय एक बार फिर से घूम गया।अब वह इस क्वार्टर का अर्दली था। बुद्धुराम से अब उसका कोई वास्ता नहीं रहा।बस इन जंगलों और जंगलों की रक्षा करने वाले ही उसके अपने थे।
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Very very nice story…👌👌👌👌👌