मनाली की वो रातें😳😱😳😱(Part –3)
...
खिड़की की ओट में थी खड़ी
तभी पीछे नज़र पड़ी
थी वो मेरी सहचरी
जो संग थी खड़ी
हां! तू है मेरी परछाई
जो हमेशा मेरे पास नज़र आई
कुछ सवालें मन में उठ रही हैं
क्यूं अपेक्षाओं की कतारें
औरतों के ही जीवन में लगी है
अपने वजूद को भूल हम
सामाजिक ताम झाम को समेटने में लगी है
बस सजना संवरना ही है हमारी चाह?
अपने अधिकारों के लिए क्यों नहीं खुलती हमारी राह
परछाईं बोली
क्यों री!सखी
अचानक अपने वजूद को टटोलने की तुझे क्या आन पड़ी
हमेशा सवालों के ही घेरे में क्यों रहती है नारी?
परछाईं बोली,
सीता से भी तो जमाने ने
अग्निपरीक्षा करवाई
द्रोपदी हो या अहिल्या
हमारी ही आत्माओं पे
क्यों घाव लगते हैं
क्यूं हमारे लिए ही कटघरे सजते हैं
मैंने पूछा, क्यूं री! सहचरी
तू तो हमेशा संग रहती है खड़ी
फिर मेरे सवालों से
क्यों घबड़ा गई?
कंगन,बिंदिया,झुमके
इन बनावटी श्रृंगारों से हमारा हृदय स्वतंत्र क्यों नहीं
तभी खिड़की से आया ठंडी हवा का झोंका
मैं थोड़ी ठिठकी
नज़र घुमाया तो सहचरी भी वहां नहीं थी अस्ताचलगामी सूरज की रोशनी में परछाईं ढूंढ रही हूं
वार्तालाप को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हूं
रोशनी बिन परछाईं का कोई वजूद नहीं
मेरे भी सवालों का कोई अंत नहीं
एक अदद जवाब की कर रही हूं तलाश
शायद समाधान मिल जाए आसपास|
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Bahut badhiya likha hai aapne 👏🏼
Thanks a lot
Jabardust….
thank u