जज़्बात
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अपने घर के सामने की बालकनी में
एक युगल बूढ़े को देखा करती थी
कब तक का है साथ
हर दिन यही सोचा करती थी
हँस हंस कर आपस में बातें करना
कांपते हाथों से एक दूसरे के कपड़ों को यूं फैलाना
रास्ते की आवाजाही को देखकर
आपस में यूं मुस्कुराना
उनके उम्र की सिलवटों को देखकर
धड़कनें व्याकुल हो जाती थी
पता नहीं ये साथ कब तक का हो
यही सोचा करती थी
आखिर वही हुआ जिसका डर था
बुरे विचारों का मंथन चल रहा आजकल था
बालकनी खोली
सामने बूढ़ी औरत पे नज़र गई
अकेली,निस्तब्ध आंखों पे नज़र ठहर गई
आज अकेला परिंदा है खड़ा
आंखों में स्याह अंधेरे का आलम है बड़ा
तभी उड़ती हुई ख़बर आई
नीचे बूढ़े की अर्थी नज़र आई
सामने जब खिड़की खोलती हूं
कभी–कभी बूढ़ीअम्मा को बालकनी में खड़ी पाती हूं
सूनी आंखें, सूनी मांग
नीरव शांति पर दिल में विचारों की आग
मुंडेर पे हाथों को टिकाए
नीचे चलते लोगों पे नज़र गड़ाए
पता नहीं उन आंखों को अब है किसका इंतज़ार
जीवन की सांध्य बेला में
किस्मत से भी नहीं है प्रतिकार
बीच सफ़र में ही साथी का साथ छूट जाना
जमीं वही,आसमान वही
पर कुछ जिंदगी में अधूरेपन का रह जाना
तभी घर की घंटी बजती है
सोच को पूर्णविराम लगा
कदम घर की ओर मुड़ती है।
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Very sad story