मनाली की वो रातें😳😱😳😱(Part –6)
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मुझे पुस्तकें पढ़ने का बड़ा शौक था,पर ये प्रेम कभी ऐसा भी भारी पड़ जाएगा, सोचा न था। मेरी जॉब ऐसी थी कि हमेशा स्थानांतरण की स्थिति बनी रहती। एक शहर से दूसरे शहर फिर दूसरे शहर से तीसरे शहर ,यही जिंदगी का फलसफा बन गया था। शादी तो हुई नहीं थी,अकेला ही घूमता रहता। मेरे परिवार में मेरी मां के सिवा और कोई नहीं था। गांव में रहकर हवेली की देखभाल करना मां को बहुत पसंद था। हर चीज बदल जाती पर किताबों का शौक नहीं बदलता।
जिस भी शहर में जाता, वहां के लाइब्रेरी का पता ले लेता। वीकेंड मेरा इन पुस्तकालयों में ही बीतता। घर में तो कोई इंतजार करने वाला था नहीं, बस आंखें किताबों में ही घुसी रहतीं। घटना यही कोई पांच साल पुरानी होगी, उस समय मेरी पोस्टिंग UP के एक छोटे से शहर में थी। थोड़े दिन के बाद जब काम ठीक– ठाक चलने लगा तो आदतन पुस्तकालय का पता करना शुरू किया।
एक दिन ऑफिस से लौट रहा था। सुबह से बारिश हो रही थी,जो रुकने का नाम ही ना ले। अंधेरा हो चला था। तभी मुझे रास्ते में एक शख्स दिखा,जो मुझे पीछे से आवाज देकर रुकने को बोला। जैसे ही मैं पीछे मुड़ा, अचानक से वह मेरे ठीक पीछे ही खड़ा मिला। मैं अचंभित होकर उसे ऊपर से नीचे तक देखने लगा। बात ही कुछ ऐसी थी। इतनी मूसलाधार बारिश हो रही थी ,पर उसके कपड़े पे बारिश
एकदम सूखा,मानों अचानक आसमान से प्रकट हुआ हो। ना ही उसके हाथ में कोई छतरी थी। आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब उसने मेरा नाम लेकर पुकारा,जबकि मैं उसे जानता तक नहीं था। मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि को वह तुरंत ताड़ गया। बात बनाते हुए उसने कहा कि वह उसके ऑफिस में ही काम करता है। आपके पुस्तक– प्रेम की खबर पूरे ऑफिस महकमे में फैली हुई है।
लोगों ने ही बताया कि आप कोई लाइब्रेरी ढूंढ रहे हैं। सोचा colleague होने के नाते आपकी मदद कर दी जाए।फिर जेब से एक मुड़ा– तुड़ा कागज़ निकला,जिसपे कहीं का पता लिखा हुआ था, कुछ धुंधला– सा मानों कई सालों से लिखा हुआ हो। पर जैसे ही मैने उसे नज़दीक से देखा,उसकी लेखनी साफ– सुथरी हो गई। सामने आने वाली हर घटना मुझे अचंभित कर रही थी। खैर,जैसे ही उसने पुस्तकालय का पता दिया ,मेरी तो बांछे ही खिल गई।
पर उस आदमी ने एक बात कहकर आश्चर्य में डाल दिया कि वो लाइब्रेरी हमेशा रात 12 बजे से 2 बजे तक ही खुली रहती है। मैंने इस बात को हंस कर टाल दिया। सोचा किसी वीकेंड को अपना नाम रजिस्टर करवा लूंगा। चलो अच्छा ही है,ऑफिस से लौटकर उधर ही चला जाया करूंगा। मन ही मन मैं हंस रहा था कि जरूर इसे ही खुद पता नहीं होगा।
ऐसा कोई लाइब्रेरी हो ही नहीं सकती है,जो इतनी रात में खुले। मेरी दबी हुई हंसी को शायद वह ताड़ गया। तभी अचानक से बिजली कौंधी और जब सामने देखा तो वह आदमी पता नहीं कहां चला गया, ज़मीन निगल गई या आसमान खा गया। हैरत कर देने वाली घटनाओं से मेरे माथे पे बल पड़ गए।पर मैंने इसे अन्यथा ही लिया। शायद यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी,जिसने मेरी जीवन की दिशा ही बदल दी।
इस बात को दो– चार दिन बीत गए। ऑफिस के काम में मैं व्यस्त भी हो गया। एक सुबह ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी मेरे सामने वह कागज़,जिस पर उस लाइब्रेरी का पता लिखा था, अचानक से मेरे सामने आ गया। सोचा कि चलो लौटते हुए इस लाइब्रेरी में अपना नाम लिखवाता आऊंगा और इसके समय का पता भी कर लूंगा।
उस दिन ऑफिस से लौटते शाम हो गई। एक ऑटो रुकवाया और उससे उस लाइब्रेरी का पता पूछा। जैसे ही मैंने उस लाइब्रेरी का जिक्र किया,मानों उसे सांप सूंघ गया हो। मुझे पागल समझकर अपने ऑटो को आगे बढ़ा दिया। ठीक यही बात मैंने तीन– चार ऑटो को रुकवाकर बोला,पर कोई रुकने को तैयार नहीं था।
किसी तरह से एक ऑटो बहुत ना–नुकुर करके वहां जाने को तैयार हुआ,पर इस शर्त पर कि अपनी ऑटो थोड़ी दूर पे ही रोक लेगा। मरता क्या ना करता, मैं मान गया। पर मेरी बुद्धि तो देखो,इतनी आश्चर्यजनक घटनाएं सामने घट रही थी पर मैंने गौर ही नहीं किया। उस समय रात के नौ बज रहे थे। ऑटो ने गंतव्य स्थान से थोड़ी दूर पे ही मुझे उतार दिया था।
पुस्तक के लालच में थका– हारा वहां तक पहुंचा।सामने देखा तो एक बड़ी सी बिल्डिंग जर्जर अवस्था में खड़ी थी। लगता है इस शख्स ने मेरे साथ मजाक किया है,निराश होकर मैं कदम पीछे बढ़ाया ही था कि मेरे जेहन में उसकी बातें कौंध गई कि यह लाइब्रेरी तो रात में ही खुलती है। सोचा ,चलो इस बात को आजमाकर देखते हैं।
किसी तरह से बहुत दूर पैदल चलकर एक ऑटो पकड़ा और घर आ गया। ये सब करते करते रात के ग्यारह बज गए। बस आधे घंटे में निकल जाऊंगा। रात 12बजे से वह लाइब्रेरी खुलती है। शहर से थोड़ा हटकर वह लाइब्रेरी स्थित थी और मुझे यह भी पता था कि कोई ऑटो वहां तक नहीं पहुंचाएगा।अगर उस लाइब्रेरी के बारे में जानना है तो समझदारी इसी में थी कि मैं उस जगह से पहले उतर जाऊं। देखूं तो जाकर वहां कि आखिर ऐसी क्या बात है,जो वह रात में ही खुलती है और उसका नाम लेने से लोग क्यों डर जाते हैं।
अब मैं ठीक इस जगह पर खड़ा था। उस लाइब्रेरी की चमकती मंजिल देखकर मुझे इतनी हैरानी हुई कि मैं गिरते– गिरते बचा। अभी 2घंटे पहले की वो जर्जर अवस्था और अभी की स्थिति बिल्कुल अतुलनीय थी। चलो अंदर पता करता हूं।जैसे ही लाइब्रेरी के मुख्य दरवाजे पे खड़ा हुआ,अपने आप दरवाजा खुल गया।आगे होने वाली हर घटना को मैं अन्यथा ले रहा था। मुझे जरा भी भान नहीं था कि मुसीबत किस कदर मेरे साथ चल रही है।
खैर,मैं अंदर घुसा। सामने रिसेप्शन पर मैंने आवाज दी।एक भावशून्य रिसेप्शनिस्ट ने मुझे घूरा और मेरे सामने रजिस्टर पटक दिया। वो जिस तरह की कुर्सी पे बैठा था,वैसी कुर्सियां आज के जमाने में नज़र नहीं आती। रजिस्टर पे अपनी एंट्री मारी और अंदर दाखिल हो गया।
हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था। पर एक चीज आश्चर्य में डालने वाली थी कि कोई भी किसी से बात नहीं कर रहा था। सभी मूर्तिवत व्यवहार कर रहे थे। मैं हंसा,मुझे क्या ,बस मुझे किताब चाहिए । यही सब सोचते हुए इधर– उधर किताब ढूंढने लगा। उन किताबों को देखकर ऐसा प्रतीत होता कि मानो सालों पुरानी हों।एक बात और सोचने वाली थी कि वहां जितनी भी घड़ियां थीं,सभी 12बजा रही थीं।
रात के डेढ़ बज गए थे। मुझे नींद भी आने लगी थी। कल ऑफिस भी जाना था,सो किताब बंद किया और जाने को जैसे ही मुड़ा,एक कद्दावर सा आदमी जो दिखने में भयानक सा लग रहा था, आकर अचानक से खड़ा हो गया। 2बजे से पहले तुम कहीं नहीं जा सकते। अजीब हुकूमत है,मेरा मन जब भी जाऊं खिजियाते हुए मैं बाहर की ओर जाने लगा,पर मुख्य दरवाजे पे ताला जड़ा हुआ था। मैं रिसेप्शन पे जाने के लिए मुड़ा,तभी लाइट चली गई। मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो गए।
अचानक से घड़ी 2 का घंटा बजाती है और अंदर से चिल्लाने की आवाजें आने लगती हैं। ऐसा लगा कि अचानक से अफरा–तफरी का माहौल बन गया हो। मैंने घड़ियों को देखा तो सभी की सुई 2पर थी।ये कैसा कौतूहल है,मन में अभी सोच ही रहा था कि,तभी किताबें अपने आप गिरने लगीं।इंसान के जलने की बू नथुने में घुस गई।मुझे उबकाई आने लगी।
तभी ताला भी खुल जाता है। मेरे पांव तो बस आगे भागने की ओर मुड़ गए।फिर पीछे क्या हुआ,मुझे कुछ खबर नहीं। पता नहीं कितने दूर तक मैं यूंही पैदल दौड़ते रहा।जब ऑटो मिला तो घर तक पहुंच कर ही दम लिया। उस दिन के बाद से मैंने कान पकड़ लिया उस लाइब्रेरी में जाने का। पर पता नहीं था कि मुसीबत मेरे साथ– साथ ही चल रही थी।
जैसे ही रात के 12 बजते,मेरे पांव खुद ब खुद घर से बाहर निकल जाते और उस लाइब्रेरी की तरफ मुड़ जाते।2घंटे बिताने के बाद मैं वहां से खुद ही निकल जाता।आखिर वो कौन सी अनजानी शक्ति थी,जो मुझसे ये सब काम करवा रही थी।एक रात मैं लाइब्रेरी में ही था,तभी मेरे पैर में ठोकर लगी और मेरी तंद्रा टूट गई।अचानक से एक बड़े से फोटो पर मेरी नज़र गई।एक आदमी के साथ अपने दादाजी की फोटो देखकर मैं चौंक गया।
जरूर कुछ ना कुछ संबंध है इस लाइब्रेरी से मेरा,तभी ना चाहते हुए भी मैं यहां चला आता हूं।मेरे इन सवालों का जवाब मेरी मां के सिवा और कोई नहीं दे सकता,क्योंकि मेरे परिवार में मां के अलावा और कोई नहीं था।घर पहुंचकर मैने मां को फोन मिलाया और उनसे सारी आपबीती कही।मां ने मेरी कहानी सुनी और चुप्पी साध लिया।कल ही मैं तुम्हारे पास पहुंच रही हूं,तेरे सारे सवालों के जवाब तुझे मिल जाएंगे,कहते हुए फोन कट कर दिया।
उस रात मैं सो ना सका।किसी तरह से करवटें बदलते रात गुजारी।अगले दिन ही मां मेरे पास थी।पहले तो जी भर के प्यार किया।पापा के गुजर जाने के बाद मैं ही इस घर का अंतिम चिराग था।मां गांव में रहकर वहां की पुश्तैनी चीजों को देखती थीं।उन्हें गांव में ही मन लगता था।फिर मां ने जो कहानी सुनाई,वो रोंगटे खड़ी कर देने वाली थी।
मेरे दादाजी और वह आदमी,जिनका नाम घनश्याम था, जिगरी दोस्त थे।साथ रहना,साथ खाना यहां तक कि दोनों की मृत्यु भी साथ साथ ही हुई।मेरे दादाजी के बाबूजी ने सड़क पर से उन्हें उठाया था और अपने हवेली में ही रख लिया।अपने बच्चे की तरह परवरिश की।लाखों की संपत्ति थी,इसलिए कभी किसी चीज की दिक्कत हुई नहीं।मेरे दादाजी और वे साथ– साथ पले– बढ़े।सहोदर भाइयों जैसा रिश्ता था दोनों का।
दोनों को किताबों का बहुत शौक था।ये लाइब्रेरी भी उसी शौक की देन थी।दोनों की शादी भी साथ– साथ ही हुई।दोनों के एक– एक बच्चे हुए।घनश्याम जी के बेटे की भी शादी हो गई।उधर दादाजी भी अपने बेटे के लिए कोई लड़की देख रहे थे।फिर मेरी मां इस घर में आ गई।घनश्याम जी तो दादा बन गए थे पर कितने साल बीत गए,इस हवेली में कोई किलकारी नहीं गूंजी।दादाजी के परिवार के बहुत एहसान थे घनश्याम जी पर।अपने वंश के आगे बढ़ने को लेकर दादाजी का हमेशा चिंतित रहना घनश्याम जी को बहुत सालता।
एक रात हवेली का दरवाजा खटका।पहरेदार ने खोला,तो सामने घनश्याम जी अपने पोते के साथ खड़े थे।सामने की कुर्सी पे मेरे दादाजी चिंतित अवस्था में बैठे जाने क्या सोच रहे थे।उनकी खानदान का चिराग कहलाने वाला कोई नहीं था,यही सब उनके दिमाग में चल रहा होगा,तभी घनश्याम जी ने अपने पोते यानि की मुझे सामने कर दिया।उस समय मेरी उम्र तीन साल की रही होगी।
दादाजी तो अवाक रह गए।अब ना मत करना,यही तुम्हारे खानदान को आगे बढ़ाएगा।दुनिया तुम्हारे नाम से ही इसे जानेगी।अपनी बहु की झोली में डाल दे इसे,कहते हुए फफक कर रो पड़े धनश्याम जी।कहने– सुनने के लिए उन्होंने कुछ छोड़ा ही नहीं था।बचपन से लेकर आज तक के सारे कर्जों से खुद को मुक्त कर दिया उन्होंने।
अपने बेटे बहु के बारे में जरा भी नहीं सोचा।कहानी सुनकर तो मेरी आंखों से आंसू रुकने का नाम ही ले रहे थे। मैंं, अपनी मां का बेटा नहीं होकर ,घनश्याम जी का पोता था।किस्मत से कुछ नहीं छिपता बेटा,तभी तो सच्चाई किसी तरह से सामने आ ही गई,कहते हुए मां ने गहरी सांस ली,मानों इस सच्चाई को कहकर उनका मन भी हल्का हो गया हो।
उस दिन हवेली में बहुत चहल– पहल थी।उसी लाइब्रेरी का उदघाटन समारोह था,जिसमे सभी को जाना था।पर ऐन वक्त पर मेरे पेट में दर्द होने लगा और मेरे कारण मां भी रुक गई।बस हमारी किस्मत ने हमें बचा लिया।उस समारोह में बहुत से लोग आए थे।दादाजी और घनश्याम जी के जानने वाले बहुत सारे लोग थे।किताबें जगह– जगह पर सजी हुई थी।टेबल कुर्सी की भी व्यवस्था की गई थी।
पर पता नहीं कहां से शॉर्ट सर्किट हो गया और देखते ही देखते पूरी लाइब्रेरी जल कर राख हो गई।उस समय रात के 12 बज रहे थे।पूरा 2घंटा ये हाहाकार चलता रहा।लोग जलकर स्वाहा हो गए ।साथ में जल गए मेरे परिवार भी और उनके अरमान भी। सूनी और एकटक निगाहों से बोलते– बोलते मां अपनी आंसुओं को छिपा गई।बेटा!शायद दादाजी और उनके दोस्त तुमसे कुछ कहना चाहते हों ,तभी तुम हर रात लाइब्रेरी में खुद ही पहुंच जाते थे।ये लाइब्रेरी दोनों का सपना था,जिसे अब तुम्हें पूरा करना है।
हम दोनों के सिवा हमारा इस दुनिया में कोई नहीं था।अब मुझे समझ में आया कि क्यों मैं उस लाइब्रेरी के पीछे– पीछे खींचा चला जाता था।अनकहे,अनसुलझे रहस्य मेरे मन– मस्तिष्क से हटने लगे।जो सच्चाई कभी नहीं आनी थी,उसे मैंने कभी बाहर आने ही नहीं दिया।
दादाजी और उनके दोस्त ने मिलकर जो सपना देखा था,अब उसे पूरा करने की जिम्मेवारी मेरी थी।मैंने उस लाइब्रेरी का फिर से जीर्णोधार किया।वो सारी सुख– सुविधाएं रखीं ,जिसको ध्यान में रखकर इसकी शुरुआत हुई थी।दोनों ही परिवारों के सपने को पूरा करना और उसे सही मंजिल देना,इसे मैंने अपना ध्येय माना।उनकी अतृप्त आत्माएं जो मुझसे करवाना चाहती थी,उसे मैंने बखूबी निभाया।
मेरे जीवन के अनसुने अध्याय का पटाक्षेप हो गया।मां भी वापस गांव चली गईं,हवेली की देखभाल जो करनी थी।जिंदगी फिर से उसी पटरी पे सरसराती चल पड़ी।हां,मेरे काम कुछ बढ़ जरूर गए,क्योंकि मुझे लाइब्रेरी को भी देखना होता था।
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Aisa laga mano ki sari ghatna aankho ke samne chal rhi ho. Bahut khub likha aapne
Aisa laga mano ki sari ghatna aankho ke samne chal rhi ho. Bahut achha
Kya story hai… Jabardust likhti hai aap.