मनाली की वो रातें😳😱😳😱(Part –6)
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गर्मी की उमस भरे दिन में बालकनी के मुंडेर पे अपना हाथ रखकर पता नहीं रोजमर्रा की उलझनों में अपने आप को समेटे हुए जाने क्या सोच रही थी| चिल -चिलाती हुई धूप थोड़ी देर में ही आँखों को खटकने लगी | उस पर से लू की गर्म हवा चेहरे को झुलसा रही थी | चारों तरफ नज़र दौड़ाया तो देखा कि सभी की खिड़कियाँ -दरवाजें बंद हैं | मैं भी झटपट अंदर आई,AC का रिमोट दबाया और सांय -सांय की ठंडी हवा कमरे में भर गयी | कितने सुकून भरे क्षणों का एहसास हो रहा था, मैं आपको बता नहीं सकती।
उफ़ क्या गर्मी है ,कहते हुए बालों को समेटने लग गयी |तभी एक आवाज कानों में गयी — केले ले लो ,संतरे ले लो | अपनी परिस्थितियों के हिसाब से इंसान मौसम की मार भी सहता है ,यही सब सोचते हुए घर में फल खत्म हो गए हैं ,सोचा चलो बाहर निकलकर ले ही लेती हूँ | बालकनी से आवाज़ लगायी तो देखा एक बूढ़ा फल के ठेले को घसीटते हुए ले जा रहा था।
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चिकित्सीय चुनौती:: आज के हालात
उम्र की लकीरें उनके चेहरे पे साफ नज़र आ रही थी। आवाज़ लगाई तो उन्होंने अपने ठेले को रोक लिया । उम्र यही कोई रही होगी 50 से 60 साल। चेहरे से छलकते पसीने को अपने गमछे से पोंछते हुए उन्होंने ऊपर आंखें उठाई। धूप से आंखे उनकी मिचमिचा रही थी। एक दर्जन केले दे दो काका, मैंने ऊपर से ही थैला लटका दिया। यहां गर्मी में सभी अपने कमरे में बंद हैं पर कुछ ऐसी भी जिंदगियां हैं,जिनके लिए ये गर्मी कोई मायने नहीं रखती। बड़े भारी मन से थैले को ऊपर खींचा।
मैं सोच रही थी कि कुछ क्षण के लिए बालकनी में आई तो मेरी पसीने छूट गए। ये लोग गर्मी में गली-गली घूमते हैं अपना पेट पालने के लिए। सच में किस्मत भी क्या चीज है, कोई AC में रहता है तो कोई गर्मी में गली-गली घूमकर अपनी जिंदगी को पटरी पर दौड़ा रहा है। मन बड़ा भावुक हो चला था। हम अपने मां– बाप को आराम देने के लिए पता नहीं क्या-क्या जहमत उठाते रहते हैं तो किसी के मां बाप ऐसे भी दिन गुजारते हैं।
अब मैं हर दिन उन काका का इंतजार करती रहती थी। पता नहीं क्यों उनकी जिंदगी में झांकने का दिल कर रहा था। घर में फल होते हुए भी फल खरीदना मेरी आदत बन गई। अब मैं सीधे नीचे चली जाती और उनसे सामान लेती थी। वो भी नीचे से बिटिया, अरी ओ बिटिया!कहकर चिल्लाते।
बातचीत करने पर पता चला कि उनका नाम अमरेंद्र सिंह है। यहीं पास में ही उनका घर है। घर में बीमार पत्नी के अलावा और कोई भी नहीं है। सालों पहले भारतीय सेना में एक सिपाही के तौर पर काम करते थे। आमदनी तो उतनी थी नहीं, पर देशभक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा था,तभी तो दोनों बेटों– सुखबीर सिंह और परमजीत सिंह को भी फौज में डाल दिया था।
खुद तो रिटायर हो गए।पेंशन से घर चल रहा था।छाती चौड़ी करके घुमा करते कि,देखो मैंने अपने दोनों बेटों को भी देश की सेवा में लगा दिया है। पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था।
सरहद पे लड़ते– लड़ते जाने कितने सिपाहियों ने अपनी जान की बाजी लगाई थी, उसमें से उनके दोनों बेटे भी शहीद हो गए। सरकार की तरफ से इनाम की घोषणा हुई थी, साथ में उनके परिवार वालों के लिए भी सहायता की बात कही गई, पर वह दिन देखो और आज का दिन देखो,आंखें इंतजार करते– करते थक गई,पर सहायता की रकम आज तक कागजों पे ही अटकी हुई है।
एडियां घिस चुकी है सरकारी महकमों का चक्कर लगाते– लगाते,पर मेरी वहां सुनने वाला कोई नहीं है। दोनों बेटों के चले जाने के बाद पत्नी भी बीमार रहने लगी। पेट भूख देखता है,हमारी बेबसी का कारण नहीं। देश की शासन प्रणाली से एकदम खफा दिख रहे थे काका।उनका गुस्सा भी जायज़ था। उनकी कहानी सुनकर मेरा मन भी भर आया।
सच में देशभक्ति से ओतप्रोत होकर हम अपने कलेजे के टुकड़े को सरहद पर भेजने में नहीं हिचकते, यह जानते हुए भी कि उनका भविष्य कभी भी ओझल हो सकता है।
ऐसे कितने गुमनाम सिपाही हैं जिनका नाम तो इतिहास में भी दर्ज नहीं है? क्या हमारी सिस्टम का यह कर्तव्य नहीं बनता है कि ऐसे परिवार पर भी नजर डालें, उनकी जीविका कैसी चल रही होगी यह पता करें।खैर,सवालों का क्या,वो तो हमेशा स्थितियों के हिसाब से पैदा होती ही रहती है।जिसके जवाब नहीं मिलते हैं,उन्हें दरकिनार करना हमारी मजबूरी बन जाती है।
अपना और अपनी पत्नी का पेट तो पालना ही था। नाते– रिश्तेदारों ने भी मुंह मोड़ लिया।जब तक इन हड्डियों में जान थी,तो कुछ सालों तक रेलवे स्टेशन पर सामान ढोने का काम किया पर वक्त के साथ-साथ शरीर भी जवाब देने लगा है।इधर कुछ सालों से यही फल का ठेला पकड़कर घूमता रहता हूं। जो भी जमा पूंजी थी ,वो सब पत्नी की बीमारी में खत्म हो गए।अब पेट पालने के लिए गली– गली घूमता हूं,कहते कहते आंखें की कोरें भींग गई उनकी।
एक ठंडी सांस लेकर संतरे का थैला उठाया और घर की ओर मुड़ गई। संतरे ले लो,केले ले लो– पीछे से आती आवाज कानों में टीस मार रही थी।ऐसा लगा कि नेपथ्य से आती ध्वनि सीधे दिल में जा लगी हो। इस तरह से कई दिन बीत गए। मैं भी रोजमर्रे के काम में व्यस्त हो गई थी।इधर कुछ दिनों से फल वाले काका की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी।
मन में तरह– तरह के सवाल उठने लगे,जो अनजानी आशंकाओं से प्रेरित थे।सोचा कि ,चलो!उनके बताए हुए पता पे जाती हूं ।कुछ ना कुछ तो मालूमात हासिल हो ही जाएंगे।पर वहां जाकर देखा तो दूर– दूर तक कोई घर नहीं था।
अब कैसे पता करूं,यही मन में बड़–बड़ा रही थी कि तभी सामने से एक आदमी आता दिखा।हाथ हिलाकर उसे रोका और उससे पूछा कि भइया यहां जो बूढ़े दंपति रहते थे,वो कहां गए।पहले तो वो आदमी सोच में पड़ गया ,पर अचानक से उसे याद आया होगा कि अच्छा वो फल वाला!मत पूछो मैडम जी!बेचारे की किस्मत इतनी बदतर होगी,खुद उसे भी नहीं पता होगा।जिस जमीन पे उसका घर था,उसे कुछ दबंग लोगों ने खाली करवाने को बोला था।बहुत गिड–गिड़ाने पर कुछ दिन की मोहलत मांगी थी।
लगता है उन दुष्टों ने उसे निकाल दिया ।साथ में उसका घर भी तोड़ दिया।वक्त की मार सबसे ज्यादा इन गरीबों पे ही तो पड़ती है।बेचारा अपनी बीमार पत्नी को लेकर कहां गया होगा?उस आदमी से सारी बात जानकर मुझे बहुत दुःख हुआ।अब कहां से ढूंढू?मायूस होकर घर लौट आई।एक अपनापन सा हो गया था उनके साथ।धीरे धीरे इस बात को कई साल बीत गए।
मेरे पति का ट्रांसफर भी दूसरे शहर हो गया।समय के साथ– साथ मैं भी इस घटना को भूल चुकी थी।जिस शहर में मेरे पति की पोस्टिंग हुई थी,वहां से मेरा मायका नजदीक ही था।बहुत दिन हो गए थे मां– पापा से मिले हुए।सोचा आज मिलने चली जाती हूं।पति जैसे ही ऑफिस के लिए निकले, मैं भी अपने काम को समेट कर निकल पड़ी।
रेलवे स्टेशन पहुंच कर ट्रेन का इंतजार कर रही थी कि तभी एक बूढ़ा घसीटते हुए मेरे पास से गुजरा।जैसे ही मेरी नजर उस पर गई,मेरे कदम वहीं रुक गए।ट्रेन के आने का समय हो गया था,पर मैं जड़वत हो गई।वो फल वाले काका ही थे,पर आंखें नहीं थीं।आखिर उनके साथ क्या हुआ होगा,जो उनकी ऐसी हालत हो गई।देश की सरहदों पे दुश्मन को चुनौती देने वाला सिपाही आज अपने ही देश की अंदरूनी हालत के कारण बदतर स्थिति में पहुंच गया था।
अपने चिरपरिचित आवाज में मैने जब उन्हें पुकारा,तो शायद वो भी पहचान गए।काका!आपकी ये हालत किसने की।अपनेपन के व्यवहार से काका फट पड़े।उसके बाद जो कहानी उन्होंने सुनाई ,उससे तो मेरी रूह ही कांप गई।हुआ यूं कि कुछ दबंग लोगों ने उन्हें घर खाली करने को कहा और 10दिन की मोहलत भी दी।पर जब वो वहां से नहीं निकले तो सारे सामान के साथ उन्हें घर से निकाल दिया।
पत्नी तो बीमार थी ही।दो रात फुटपाथ पे गुजारी।बुखार से शरीर तप रहा था उनकी पत्नी का।पर ना दवा थी और न ही आसरा।उस पर से लगातार बारिश ने तबियत और बिगाड़ दी। वो मदद की भीख मांगते रहे, पर कोई आगे नहीं आया।उसी बारिश में एक दिन ठिठुरते हुए उनकी पत्नी ने दम तोड दिया,कहते –कहते काका की आवाज़ भरभरा उठी।
लाश लावारिश होकर जमीन पे पड़ी थी।ना जेब में पैसे थे और ना ही किसी ने मदद की।municiplity वाले आए और लाश को ले गए। मैं किंकर्तव्यविमुख होकर देखता रह गया।अगर मौत अपने हाथ में होती तो मैं भी संग हो लेता।अब जिंदगी में कुछ बचा नहीं रहा,यही सोचते हुए सड़क पार कर रहा था,तभी किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी।इतनी इंसानियत हुई कि कुछेक लोगों ने हॉस्पिटल पहुंचा दिया।
पर मैं अपनी आंखें खो चुका था। चलो,अच्छा ही हुआ कि बेरहम दुनिया को देखने से बच गया। अब मैं इसी शहर में भीख मांगकर गुजारा करके जिंदगी के कुछ बचे– खुचे पल जी रहा हूं। किस्मत ने तुमसे फिर मिला दिया बिटिया। बस यही है मेरी कहानी और देश से प्यार करने का प्रतिफल।
मेरी आंखें अनवरत बह रही थी। कितने दर्द सहे काका ने। अगर मैं भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ देती तो फिर मुझमें और बाकी लोगों में फर्क ही क्या रह जाता। मैंने तुरंत वृद्धाश्रम का नंबर घुमाया। वहां से बातचीत करने के बाद मैने उन्हे भरपेट खाना खिलाया।फिर उनका हाथ पकड़ा और ऑटो पे बैठ गई।शायद अब यही आखिरी मंजिल हो उनकी।
जिंदगी की सांझ हो चली थी काका की।पर इस झुरमुट में एक नई रोशनी बनकर आई मैं उनके लिए।वहां पहुंच कर इंचार्ज से बातें की और हिदायत भी दिया कि इनका खास ख्याल रखा जाए। मैं हमेशा पैसे भेजते रहूंगी और मिलने भी आती रहूंगी।
जब जाने लगी तो काका ने पीछे से हाथ पकड़ लिया।जीते रहो,बेटी !भगवान तुम्हारे जैसे मदद करने वालों को हर जगह भेजें।मेरी आंखें अब तुम्हे नहीं देख सकती,पर तुम्हारी छवि मेरे अंतस मन में बैठी हुई है। आती रहना बिटिया। तुम्हारे सिवा और इस दुनिया में कोई नहीं है। मैने उन्हें भरे गले से सांत्वना दी और जाने के लिए आगे बढ़ गई।
खून के रिश्ते ही सब कुछ नहीं होते,इंसानियत भी कोई चीज है।भारी मन से ऑटो को आवाज दी।ऑटो पे बैठते हुए यही सोच रही थी कि किसी के दुख इतने बड़े क्यों होते हैं कि आसमां को भी बरसना पड़ जाए।मायके ना जाकर घर की ओर मुड़ गई थी।पति के आने का भी समय हो चला था।ठंडी सांस ली और आंखों को बंद कर लिया।ऑटो पे गाना बज रहा था–संसार है एक नदिया,दुख– सुख दो किनारे हैं,ना जाने कहां जाए हम बहते धारे हैं।इस गाने के बोल अनवरत सवाल मन में पैदा करने लगे।
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